SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 679
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६६ उपमिति भव-प्रपंच कथा ही नहीं कर सकता। अतः हमें इससे दूर ऐसे स्थान पर खड़े होना चाहिये जहाँ इसके शरीर की दुर्गन्ध न पाती हो, पर जहाँ से यहाँ घटित होने वालो घटना आकुलता रहित होकर दिखाई दे सकती हो । साधारण अशुचि की कोठी (पात्र) तो छिद्र रहित भी हो सकती है, पर यह तो निरन्तर नौ द्वारों से अशुचि बाहर निकालती ही रहती है । अतः इसके निकट तो मैं एक क्षण भी खड़ा नहीं रह सकता । इस दुर्गन्ध से मेरा तो सिर भिन्ना जाता है। [४५-५१] प्रकर्ष आपकी बात तो सत्य ही है, इसमें कोई संशय नहीं है। यह दुर्गन्ध इतना बुरा प्रभाव डाल रही है कि मेरी नाक में भी भर गई है और मुझे भी घबराहट हो रही है । चलिये, थोड़े दूर खड़े हो जायें। [५२] दोनों वहाँ से कुछ दूर हट गये और जहाँ से सब दृश्य बराबर दिखाई दे सके ऐसे स्थान पर जाकर खड़े हो गये। रमरण वेश्या के घर में उसी समय रमरण वेश्या के घर आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे हाथ में खिचा हा तीर कमान लेकर मकरध्वज अपने मित्र भय के साथ आ रहा था और कभी-कभी अपने तीरों से उस पर वार भी कर रहा था। महल के द्वार पर ही रमण ने कुन्दकलिका को देखा । उसे देखते ही रमण को इतना अधिक हर्ष हा मानो उसे नवजीवन प्राप्त हो गया हो, मानो उसके सम्पूर्ण शरीर पर अमृत-सिंचन हो रहा हो, मानो उमे हीरे माणक का रत्न भण्डार मिल गया हो या उसका किसी बड़े राज्य की राजगद्दो पर राज्याभिषेक हो गया हो। उसी समय मदनमञ्जरी घर से बाहर निकली। उसने रमण को घर के द्वार पर खड़ा देखा । वह समझ गई कि आज इसके पास कहीं से कुछ पैसे आये हैं । उसने इशारे से अपनी जवान पुत्री को समझाया कि आज रमण पाया है जिसे लूटना है। संकेत होते ही कुन्दकलिका ने ऊपरी हाव-भाव स अपनी सुन्दरता का प्रदर्शन करते हुए प्रेम-दृष्टि से रमण की तरफ देखा जिससे वह निहाल हो गया। अवसर देखकर मकरध्वज ने भी इसी समय एक तीर अपने कान तक खींचकर वेग से रमण पर चलाया जिससे उसका हृदय प्रार-पार कामविद्ध हो गया और उसने कुन्दकलिका को अपनी भुजाओं में ले लिया तथा उसे लेकर उसके महल में प्रविष्ट हुमा । वृद्धा मदनमञ्जरी उस समय वहाँ आ पहुँची और उसने रमण से रुपये और अन्य सभी वस्तुएं ले लीं। उसके कपड़े भा उतरवा लिये और उसे एकदम नंगा कर दिया, फिर बोली-लड़के ! यह तो तूने बहुत अच्छा किया कि तू यहाँ आ गया । कुन्दकलिका तुझे बार-बार याद करती थी, पर देख अपने राजा का पुत्र चण्ड भी अभी यहीं अाने वाला है, अतः थोड़ी देर के लिये तू कहीं छिप जा। यदि वह तुझे यहाँ देख लेगा तो बहुत क्रोधित होगा और सम्भव है क्रोधित होकर तुझे मार भी दे ।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy