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________________ २५. रमण और गणिका बुद्धिपुत्र प्रकर्षं अपने मामा के साथ धन के तत्त्वज्ञान पर विचर कर रहा था तभी एक विशेष आकर्षक घटना घटी । मामा-भाणजे ने देखा कि एक अत्यन्त दुर्बल. अशक्त और मलिन शरीर वाला तरुण मनुष्य जीर्ण-शीर्ण कपड़े पहने हुए कहीं से निकल कर बाजार में आ रहा है । एक दुकान पर उसने गांठ में से कुछ रुपये निकाल कर बाजार से थोड़े लड्डू, एक पुष्पहार, थोड़े पान, कुछ सुगन्धित पदार्थ और दो कपड़े खरीदे । फिर बाजार के पास की ही एक बावड़ी की सीढ़ी पर बैठकर खरीद कर लाये हुए लड्डू खाये, पान चबाया । पेट भरने के पश्चात् उसने स्नान किया, शरीर पर सुगन्धित तेल लगाया, सिर पर पुष्पहार का मुकुट बनाकर पहना, सुगन्धित पदार्थों से शरीर को सुवासित किया, नवीन वस्त्र पहने और महाराजा की भांति प्राडम्बर पूर्वक वहाँ से चला । चलते-चलते वह बार-बार अभिमान पूर्वक अपने शरीर को देखता जाता, बाल ठीक करता, आमोट (पुष्पमुकुट) को संभालता और गहरी सांस लेकर इत्र की सुगन्ध को सूंघकर प्रसन्न होता जाता । [ २१-२६] रमरग भिखारी जैसे व्यक्ति को रसिक बनते देखकर प्रकर्ष ने पूछा- मामा ! यह युवक कौन है ? कहाँ जाने के लिये निकला है और क्यों ऐसे विकार प्रदर्शित कर रहा है ? [२७] विमर्श - भाई ! इसकी कहानी तो बहुत लम्बी है । पर संक्षेप में विशेष बात तुझे बताता हूँ, (तू ध्यानपूर्वक सुन ।) यह इस नगर के निवासी समुद्रदत्त नामक सेठ का पुत्र रमरण है । यह तरुण है, अत्यधिक भोगासक्त है, बचपन से ही वेश्या के फंदे में ऐसा फंसा हुआ है कि इसे वेश्या के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता । इस समुद्रदत्त का घर धन, धान्य, स्वर्ण, रत्न आदि वैभवों से परिपूर्ण कुबेर के खजाने जैसा था जिसे इस रमण ने वेश्या के फंदे में फंसकर मिट्टी में मिला दिया है । यहाँ तक कि अब इसे स्वयं के लिये रोटियों के भी लाले पड़ गये हैं । यह पापो अब निर्धन हो गया है, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र वाला हो गया है, दूसरे की नौकरी कर रहा है, लोगों की नजरों में तुच्छ हो गया है और अपने कर्म के परिणाम स्वरूप महा दुःखो हो रहा है । नौकरी करते हुए आज इसे कहीं से अनायास पैसा प्राप्त हो गया है, अतः व्यसन ने फिर इस पर अपना आधिपत्य जमाया है । हे वत्स ! इसके बाद इसने कैसे बहुरूपिये की भांति अपना रूप बदला, यह तो तू ने देखा ही है, इस सम्बन्ध में मुझे कहने की आवश्यकता ही 1 पृष्ठ ४०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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