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प्रस्ताव ४ : महेश्वर और धनगर्व पूजा और विशुद्धशील में वृत्ति, इन्हीं से पुण्यानुबन्धी पुष्य एकत्रित होता है। किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का त्रास नहीं देने से, अन्य प्राणियों पर अधिकाधिक कृपा (करुणा) करने से और अपने मन का दमन करने से भी पुण्यानुबन्धी पुण्य एकत्रित होता है । जिन प्राणियों ने पूर्व-भव में ऐसा पुण्य उपाजित किया हो अथवा इस भव में ऐसा पुण्य कमाया हो, उनके पास पाया हुआ धन मेरु पर्वत के शिखर के समान स्थिर रहता है । ऐसे पुण्यशाली महात्मा प्राणी अपने पुण्यानुबन्धी पुण्य के फलस्वरूप जो धन प्राप्त करते हैं, उसे वे बाह्य (अपने से भिन्न), तुच्छ, मल जैसा और क्षण भर में नाशवान अस्थिर समझकर उसका शुभ स्थानों और शुभ कार्यों में व्यय करते हैं और स्वयं उसका भली प्रकार उपयोग करते हैं, परन्तु वे मनीषो धन में तनिक भी आसक्त नहीं होते । अर्थात् न तो वे धन के ढेर देखकर प्रसन्न होते हैं और न उसे संचित करने में पागल ही बनते हैं। जिनका जन्म भी शुभ (पवित्र माना जाता है ऐसे पुण्यशाली विशुद्ध बुद्धि वाले प्राणियों के सम्बन्ध में यह धन, धन के शुभ (अच्छे) परिणाम ही प्रदान करता है । अन्य क्षुद्र मनुष्य जो ऐसे बाह्य निन्दनीय, अनर्थकारी धन पर मूच्छित रहते हैं, आसक्ति रखते हैं, उसको पकड़कर बैठते हैं, वे उसका दान भी नहीं कर सकते और उसका उपभोग भी नहीं कर सकते। ऐसे क्षुद्र प्राणी इस भव में अत्यधिक चित्त-सन्ताप प्राप्त करते हैं और परभव में घोर अनर्थ-परम्परा को प्राप्त करते हैं । हे भद्र ! इस में क्या नवीनता है ? क्या आश्चर्य है ? संक्षेप में सारांश यह है कि तत्त्व-रहस्य को समझने वाले बुद्धिमान पुरुष धन होने पर भी उस पर आसक्त नहीं होते, उसका अभिमान नहीं करते, अपितु शुभ कार्यों में व्यय करते हैं और स्वयं उसका उपभोग करते हैं। जो प्राणी न तो दान करता है और न उसका उपभोग करता है वह तो बेचारा व्यर्थ परिश्रम करने वाला बिना पैसे का नौकर है जो अन्त में पछताता है। जो प्राणी इस वस्तु-स्थिति को जानता है वह पैसा प्राप्त करने में लुब्धता और अनीति की गन्ध भी नहीं आने देता। यदि चोरी या अप्रामाणिकता से धन प्राप्त करने की इच्छा होती है तो समझ लेना चाहिये कि उसका कष्टदायक परिणाम वैसा ही प्राप्त होगा जैसा इस महेश्वर सेठ को प्राप्त हुआ। [६-२०]
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