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________________ २५० उपमिति-भव-प्रपंच कथा शरीर में प्रवेश कर लिया है । जिन प्राणियों में धनगर्व प्रविष्ट हो जाता है, उन .. सभी की यही स्थिति हो जाती है। यह सेठ अभी ऐसा मान बैठा है कि * ये हीरे माणक आदि रत्न सब उसी के हैं और वह ही उसका स्वामी है, अतः वह बहुत ही कृत-कृत्य है, भाग्यशाली है। वह ऐसा समझता है कि उसे इस जन्म का सचमुच बडा फल (लाभ) प्राप्त हपा है और उसका जन्म सफल हो गया है। वह अपने समक्ष सारे संसार को रंक समझता है। ऐसे विचाररूपी विकारों के अधीन यह भाई सर्वदा आकाश में ही उड़ता रहता है । धन का स्वरूप कैसा अस्थिर है, इसका इसे तनिक भी ज्ञान नहीं है। धन का अन्तिम परिणाम क्या होता है, इस पर यह किचित् भी विचार नहीं करता । भविष्य में क्या होगा, इसकी इसे नाममात्र भी चिन्ता नहीं है। वस्तुतत्त्व क्या है, इसका पर्यालोचन नहीं करता । प्रत्येक वस्तु क्षणिक है, नाशवान है, इसका चिन्तन नहीं करता । प्रकर्ष-रागकेसरी के जो आठ बालक मैंने देखे थे, उनमें से यह पांचवां (अनन्तानुबन्धी मान या लोभ) इस सेठ के बिलकुल समीप ही बैठा हो ऐसा लगता है। विमर्श-ठीक है, वही है । रागकेसरी का यह पांचवाँ लड़का ही यहाँ प्राया हुआ है । अब आगे क्या होता है यह ध्यानपूर्वक देखना । मान एवं लोभाभिभूत महेश्वर सेठ ___ मामा-भाणेज दूर खड़े-खड़े देख रहे थे, इतने में ही कोई एक भूजंग (गरिणकापति) पाया और महेश्वर के पास बैठा । बैठकर सेठ से बोला कि वह एकां - में कुछ विशेष बात करना चाहता है । सेठ उसके साथ एकान्त के कमरे में गया तब उसने एक महा मूल्यवान मुकुट सेठ को दिखाया। यह मुकुट हीरे रत्न जटित था और अन्धेरे में भी अपनी चमक से दिशात्रों को प्रकाशित कर रहा था। सेठ ने इस राजसेवक को तुरन्त पहचान लिया। अरे! यह तो हेमपुर नगर के राजा विभीषण का सैनिक वेश्यापति दुष्टशील है । विचक्षण सेठ मन में समझ गया कि यह चोर अवश्य ही मुकुट चुराकर लाया होगा । इसी समय रागकेसरी का वह लड़का सेठ के शरीर में प्रविष्ट हो गया। उसके प्रताप से सेठ ने सोचा कि यह मुकुट चोरी का हो या कैसा भी हो, उससे उसको क्या मतलब ? उसे तो यह मुकुट किसी भी प्रकार से हस्तगत करना चाहिये । सेठ ने अपने विचार को तत्क्षण ही कार्यरूप में परिणत करने का निर्णय कर लिया और उसने दुष्टशील से कहा-'हाँ, भाई ! बोलो, क्या कहना है ?' गणिकापति ने कहा-'इसका उचित मूल्य देकर आप इसे ले लीजिये।' सेठ मन में प्रसन्न हुआ और साधारण मूल्य पर दुष्टशील को राजी कर लिया। दुष्टशील भी जो मिला वह रोकड़ी लेकर वहाँ से वेग के साथ पलायन कर गया। के पृष्ठ ४०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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