SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 672
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५६ प्रस्ताव ४ : महेश्वर और धनगर्व २४. महेश्वर और धनगर्व सन्ध्या वर्णन सूर्यास्त हो जाने के कारण अन्धकार से सारा संसार काली स्याही जैसा काला हो गया था। दीपक जल गये थे। गाय भैसे वापस अपने घर लौट चुकी थीं। पक्षी अपने घोसलों में आकर बैठ गये थे। वैताल भयंकर रूप धारण कर रहे थे। उल्लू विचरण करने लगे थे। कौए शान्त हो गये थे । सूर्यमुखी कमल बन्द हो गये थे। ब्रह्मचारी मुनिगण अपनी-अपनी आवश्यक क्रियाओं में संलग्न हो गये थे। अपनी प्यारी चकवी के विरह से चकवा रोने लगा था। विषय-लम्पट लोग उल्लसित होने लगे थे और कामिनियाँ मन में मुस्कराने लगी थीं। ऐसे प्रदोष (संध्या) कालीन समय में लोगों के मन आनन्दित होने लगे थे। उसी समय मामा-भाणजे ने महेश्वर नामक एक सेठ को अपनी दुकान पर बैठे देखा । [२४-२८] महेश्वर का गर्व सेठजी दुकान में बिछी एक मोटी गद्दी पर तकिये के सहारे आराम से बठे थे। उनके आस-पास अनेक नम्र, विनया और विचक्षण वणिकपुत्र (व्यापारी) बैठे थे। सेठजी के सामने माणक, हीरे, नीलम, वैडूर्य, प्रवाल आदि रत्नों के ढ़ेर पड़े थे, जो अपनी चमक से आस-पास के अन्धकार का भी नाश कर रहे थे। सेठजी के ठीक सामने सोने की मोहर, सिल्लियां, चांदी, रुपये आदि के ढेर लगे थे । इन सब को देखकर सेठ मन में मुस्करा रहा था और गर्व से फूल रहा था। यह देखकर मामाभाणेज बात करने लगे : प्रकर्ष-मामा ! यह महेश्वर सेठ अपनी भौंहें चढ़ाकर दृष्टि को एकटक निश्चल कर क्या देख रहा है ? इसके सामने कुछ व्यक्ति आदर | बहुमान पूर्वक कुछ याचना सी करते दिखाई दे रहे हैं, फिर भी यह भाई बहरा बनकर कुछ ध्यान ही नहीं दे रहा है । बेचारे आदरपूर्वक विनय से उसकी तरफ देखकर बोल रहे हैं, पर यह भाई उनकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता, इसका क्या कारण है ? कुछ लोग तो बेचारे अत्यन्त नम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर इसके समक्ष खड़े हैं, कुछ उसकी चापलूसी कर रहे हैं, मगर यह उनकी तरफ देखता भी नहीं और उन्हें तुणतुल्य रक जैसा समझता है, इसका क्या कारण है ? यह सेठ रत्नों को बार-बार देखता है, मन में कुछ ध्यान करता है, निस्तब्ध हो जाता है, फिर पूरा शरीर रोमांचित होता है और मन में मुस्कराता सा दिखाई देता है, इसका क्या कारण है ? यह बताइये । [२६-३५] धनगर्व विमर्श-भाई प्रकष ! सुनो, हमन अभी राजमन्दिर में मिथ्याभिमान को देखा था, उसी का एक अंगभूत मित्र धनगर्व है। इस धनगर्व ने अभी इस सेठ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy