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________________ ५५८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा जैसा भी अच्छा-बुरा कार्य करवाते हैं, तदनुसार ये बेचारे करते हैं। पहले इस मिथ्याभिमान ने इन बेचारों से एक नाटक करवाया और अब शोक एवं मतिमोह इनसे दूसरा नाटक करवा रहे हैं, ये बेचारे क्या करें ? जो प्राणी शुभ चेतना वाले, सद्ज्ञान से पूर्ण और पवित्र हैं ऐसे महात्मा पुरुषों को यह मतिमोह किसी भी प्रकार की विघ्न/बाधा नहीं पहुँचा सकता। ऐसे प्राणी तो पहले से ही वस्तु स्वभाव को जानते हैं। उन्हें तो यह विदित ही रहता है कि यह संसार-रचना क्षण भंगुर है. अन्त में नष्ट होने वाली है । प्रारम्भ से ही जिन्हें यह ज्ञान हो उनका यह शोक क्या बिगाड़ सकता है ? रिपुकम्पन पुत्र-शोक से इसी लिये मरा कि मतिमोह से प्रभाव से वह पुत्र में अत्यन्त आसक्त हो गया था। अब शोक इन सभी लोगों से करुण विलाप करवा रहा है। [8-१५] प्रकर्ष-मामा इस नप-मन्दिर में क्षणमात्र में इतना आश्चर्योत्पादक उलट फेर हो गया। थोड़ी देर पहले जहाँ हर्ष था, वहाँ विलाप होने लगा। ऐसा प्राज ही हुआ है या कभी कभी होता ही रहता है ? । विमर्श-भाई प्रकर्ष ! इस संसार चक्र में ऐसी घटनाएं असम्भव या अशक्य नहीं है। यह नगर तो ऐसी एक दूसरे से विपरीत एवं विचित्र घटना-चक्रों से भरा हया ही है। अब यहाँ राजा और उसके पुत्र को दाह-संस्कार के लिये ले जाने की पुकार होगी। लोग छाती पीट-पीट कर दारुण एवं भीषण क्रन्दन करेंगे। शोक प्रदर्शित करने वाले काले झण्डे चारों तरफ लगाये जायेंगे । हृदयभेदी मत्यु-सूचक विषम बाजे बजेंगे। ऐसी हृदयविदारक रीतियाँ यहाँ होगी। हे वत्स ! हृदय को अत्यन्त उद्विग्न करने वाली ऐसी रीतियाँ लोगों को अत्यन्त सन्तप्त करती हैं। अतः मृतक को राजमन्दिर के बाहर ले जाने से पहले ही हमें यहाँ से चल देना चाहिये। ऐसे हृदयभेदक दृश्य को हमें नहीं देखना चाहिये। परदुःखं कृपावन्तः सन्तो नोद्वीक्षितु क्षमाः । सन्त लोग दयालु दृष्टि वाले होते हैं, वे दूसरों के दुःख को देखने में समर्थ नहीं होते। इस प्रकार विचार करते हुए प्रकर्ष और विमर्श राजभवन से बाहर निकल कर बाजार में आ गये । रिपुकम्पन को मरा हुआ जान कर सूर्य भी उस समय मलिनता धारण कर पश्चिम समुद्र में स्नान करने चला गया/अस्त हो गया ।[१६- ३] * पृष्ट ४०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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