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________________ प्रस्ताव ४ : रिपुकम्पन ५५७ है वैसे ही हम दुर्भागी लोग देखते ही रह जायेंगे और यह सुकोमल पुष्प एक क्षण में सदा के लिये कुम्हला कर गिर जायगा।' राजा बोला- 'अरे लोगों ! सब अपनीअपनी शक्ति का शीघ्र ही उपयोग करें। कोई भी कुमार को जीवन प्रदान करेगा उसे मैं अपना राज्य दे दूंगा, मैं उसका नौकर बनकर रहँगा।' यह सुनकर सब लोगों ने पादरपूर्वक कई दवाइयाँ दो, मन्त्र जपे, मादलिये (गण्डे ताबीज) बांधे, रक्षा-मन्त्र लिखे, अनेक देवी-देवताओं का तर्पण किया, मानता मानी, विद्यापाठ किये, मण्डल बनाये, टोटके किये, देवी-देवताओं के जाप किये, यन्त्र बनाये, परन्तु इतनी सारे साधन एवं उपचार के पश्चात् भी * कुमार की मृत्यु थोड़ी देर बाद हो गई। शोक से रिपुकम्पन का मरण उसी समय शोक और मतिमोह ने मतिकलिता रानी, रिपूकम्पन राजा और उनके परिवार-जनों के शरीर में प्रवेश किया। इस कारण 'अरे! मैं मर गई, मेरी सारी आशाएं भंग हो गई, मैं लुट गई। अरे देव ! मेरी रक्षा करो । मुझे बचानो' इस प्रकार रोती बिलखती रानी कुमार को मृतक देखकर वज्राहत सी जमीन पर गिर गई और अत्यन्त विह्वल एवं व्याकुल हो गई। [१-२] 'मरे बच्चे ! मेरे प्यारे पुत्र ! मेरे लाड़ले !' पुकारते हुए रिपुकम्पन राजा भी मूच्छित होकर जमीन पर गिर पड़ा और पुत्र शोक से दुःखी होकर तुरन्त अपने प्राणों का त्याग कर दिया। [३] राजभवन में घोर हाहाकार, विलाप और आक्रन्दन होने लगा। लोगों की छाती कूटने की हृदयभेदी आवाजें आने लगीं। मतिकलिता और रतिललिता रानियों ने अपने केणकलाप (चोटियां) खोल दिये, भग्न किये हुए आभूषणों से सिर फोड़ने लगी और सैकड़ों प्रकार से विलाप करने लगीं। मुह में लार भर गई और दीन बनकर जमीन पर लौटने लगों । सिर के बाल नोंचने लगी व जोर से हाहाकार करती हई रोने लगीं। चारों और लोग भी करुण स्वर से हाहाकार करने लगे। [४-६] विमर्श और प्रकर्ष की रहस्यमय विचारणा यह देखकर विस्मित नेत्रों से प्रकर्ष बोला -- मामा ! अभी कुछ समय पूर्व तक तो ये लोग नाच-कूद रहे थे, पर अब नाच-कूद छोड़कर यह नये प्रकार का नाच कैसे शुरू कर दिया ? [७-८] विमर्श --भाई प्रकर्ष ! अभी तूने राजभवन में शोक और मतिमोह को प्रवेश करते देखा है, उन्होंने अपनी शक्ति से ही यह सब नाटक रचा है । मैंने तुझे पहले भी बताया था कि इस नगर के लोग अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र रूप से कोई भी कार्य नहीं कर सकते, पर उनमें रहे हुए अन्तरंग मनुष्य अपनी शक्ति से उनसे * पृष्ठ ४०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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