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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा में वीर है, अतः द्रव्य रिपुकम्पन अर्थात् नाम से ही रिपुकम्पन हैं। [२७] * कहा भी है : यो बहिः कोटिकोटीनामरीणां जयने क्षमः । प्रभविष्णुविना ज्ञानं, सौऽपि नान्तरवैरिणाम् ।। [२८] जो व्यक्ति करोड़ों बाह्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है, वही ज्ञान के बिना अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्रात करने में शक्तिशाली नहीं बन पाता। अतः हे वत्स ! इसमें रिपुकम्पन का या अन्य प्राणियों का दोष नहीं है। वस्तुतः उनमें ज्ञान की अनुपस्थिति ही सच्चा दोष है, वही उन्हें कुमार्ग पर ले जाता है। नेत्रों में अज्ञान रूपी विकार होने से उस पर काम रूपी अन्धता का पर्दा पड़ा होने से लोग निश्चित रूप से शीघ्र ही मिथ्याभिमान के वश में हो जाते हैं। एक बार मिथ्याभिमान के वश में पड़ा नहीं कि व्यक्ति दूसरे लोगों के साथ बच्चों जैसी चेष्टाएं करने लगता है और अपने लिये अनेक प्रकार की विडम्बनाएं खड़ी कर लेता है । रिपुकम्पन का दृष्ट त तेरे समक्ष ही है । जिन प्राणियों को बुद्धि ज्ञान से पवित्र हो गई है, उन्हें तो पुत्र, राज्य या धन प्राप्त हो अथवा कोई पाश्चर्यजनक स्थिति प्राप्त तब भी हो ऐसे पुण्यशाली मध्यस्थ बुद्धि वाले प्राणी के हृदय में यह मिथ्याभिमान रूपी आन्तरिक शत्रु तनिक भी स्थान प्राप्त नहीं कर सकता। २८-३३] मामा-भारणजे बात कर ही रहे थे कि राजभवन के द्वार पर दो व्यक्ति आ पहुँचे । प्रकर्ष द्वारा इनके बारे में पूछे जाने पर विमर्श ने बताया कि मतिमोह के साथ शोक आया है। जिन्हें तुमने पहले तामसचित्त नगर में देखा है। [३४-३५] इसी समय सूतिकागृह में से करुणाजनक कोलाहल उठा। दासियाँ हाहारव पूर्ण क्रन्दन करती हुई राजा के समक्ष आई। प्रसन्नता की धमाचौकडी बन्द हो गई, वातावरण एकदम शान्त हो गया और राजा घबराकर बारम्बार पूछने लगा कि 'यह क्या हो रहा है ?' दासी ने कहा -'रक्षा करो देव ! बचाओ ! महाराज! कुमार को प्रांखें एकदम स्थिर हो रही हैं, उनके प्राण कण्ठ तक आ गये हैं। देव ! दौडिये, शीघ्र कोई उपाय करिये।' दासी के वचन सुनकर राजा वज्राहत जैसा व्याकुल हो गया, फिर भी साहस धारण कर अपने पारिवारिक लोगों के साथ तत्क्षण सूतिकागृह में पहुँचा । वहाँ जाकर उसने देखा कि स्वयं के प्रतिरूप जसा सुन्दर और अपने तेज से राजभवन को दीवारों को प्रकाशित करने वाला बालक शिथिल हो रहा है, उसके प्राण कण्ठ तक आ गये हैं, और लगता है कि उसका जीवन थोड़ा ही शेष रह गया है। नगर के सारे वेद्यों को तुरन्त बुलाया गया। मुख्य वैद्य को पूछा कि, 'क्या बीमारी है ?' वैद्य ने कहा-'महाराज ! कुमार को मरणान्तक कालज्वर प्राया है। जैसे प्रचण्ड पवन के झोंकों से कैसा भी दीपक हो वह झपाटे से बुझ जाता के पृष्ठ ४०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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