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प्रस्ताव ४ : रिपुकम्पन
मन्दिर में सर्वत्र रास आदि विलास करने लगीं । वधाई देने के लिये महल में आने वाले लोगों को भोजन-पान से तुष्ट किया जाने लगा। आनन्द और हर्ष में सर्वत्र वृद्धि हो गई । पुत्र जन्म की वधाई का प्रानन्द चारों तरफ फैल रहा था और नौकर लोग अानन्द से नाच रहे थे। तभी हर्षातिरेक में आकर राजा रिपुकम्पन भी हाथ उठा-उठा कर नौकरों के साथ नाचने लगा। [११-१३]
उक्त प्रकार की सर्वत्र धूमधाम देखकर प्रकर्ष को कुछ सन्देह हुआ, इसलिये उसने मामा से पूछा - मामा ! ये लोग हर्ष से उछल रहे हैं, आनन्दातिरेक में सब लोग मुह से हर्षोल्लास के उद्गार निकाल रहे हैं, इसका क्या कारण है ? यह जानने का मुझे कौतुहल हो रहा हैं। क्या आप मुझे बताने की कृपा करेंगे ? कुछ लोग अपने शरीर पर मटकियों का भार उठाये हुए हैं, कुछ लोग लकड़ी की चौखट पर चमड़े को मढ़कर उनको जोर-जोर से बजा रहे हैं। प्रांतडियों से निर्मित और मोतियों से ग्रथित तन्तुवाद्य मन्द-मन्द स्वर में चल रहे है, इन सब का कारण क्या है ? सब से आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस राजभवन का नायक और पृथ्वीपति एक बच्चे की तरह हँसी पैदा करने वाला आचरण, नाच और हँसी-ठट्टा क्यों कर रहा है ? इसका कारण क्या है ? यह तो बताइये मामा ! जब तक यह बात मेरी समझ में नहीं आयेगी तब तक मेरा कौतुहल शांत नहीं होगा। [१४-१८]
विमर्श-वत्स! इस सब का कारण तुझे बताता हूँ. सुन-इस सब घटनाचक्र का प्रवर्तक एक ही मनुष्य है । जब हम इस राजमन्दिर में प्रवेश कर रहे थे उस समय मिथ्याभिमान ने भी प्रवेश किया था। यह सब नाटक यह मिथ्याभिमान ही करवा रहा है। पुत्रोत्पत्ति की खुशी में यह रिपुकम्पन इतना अधिक हर्षोन्मत्त हो गया है कि वह हर्ष इसके शरीर में या राजमहल में या नगर में या तोन भूवन में भी नहीं समा रहा है । इस राजा के चित्त को मिथ्याभिमान ने विह्वल कर दिया है। इसी से राजा स्वयं नाच रहा है और दूसरों को भी नचा रहा है । विशेषता तो यह है कि इन लोगों की जो आत्म-विडम्बना हो रही है, उसे ये समझ ही नहीं सकते, क्योंकि मिथ्याभिमान के समक्ष सम्पूर्ण संसार पामर जैसा है। [१६-२४]
प्रकर्ष-मामा ! यदि ऐसी बात है तो लोगों को इतनी अधिक विडम्बना में गिर'ने वाला यह मिथ्याभिमान तो वास्तव में लोगों का शत्रु ही है । [२४ ।
विमर्श-इसमें शंका की क्या बात है ? वास्तव में यह लोगों का शत्रु ही है। फिर भी लोगों को यह अपने भाई से भी अधिक प्रिय लगता है । [२५]
प्रकर्ष—यह रिपुकम्पन अर्थात् शत्रुओं को कंपाने वाला जब मिथ्याभिमान के वश में हो गया है तब इसे रिपुकम्पन कैसे कहा जाय ? [२६]
विमर्श-भाई ! यह भाव से रिपुकम्पन नहीं है, क्योंकि यह अपने शत्रुओं को किंचित् भी कम्पायमान नहीं कर सकता । यह तो केवल बाहरी शत्रुओं से लड़ने
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