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________________ प्रस्ताव ४ : महेश्वर और धनगर्व दुष्टशील के जाते ही तत्काल उसके पैरों के चिह्नों को गुप्तचरों के साथ ढूढते हुए विभीषण राजा के राज-कर्मचारी वहाँ पहुँच गये । जांच करने पर उन्हें किसी भी प्रकार से पता लग गया कि महेश्वर सेठ ने मुकुट को खरीद लिया है। उन्होंने चोरी के माल सहित सेठ को पकड़ा और पंचों के समक्ष साक्षियां तैयार कर सेठ को माल सहित गिरफ्तार कर लिया। सेठ के पास जो हीरे माणक आदि रत्नों के ढेर लगे थे उन पर भी राजसेवकां ने क्षण मात्र में अधिकार कर लिया। सेठ रोता-चिल्लाता रहा किन्तु राजसेवकों ने उसे बांध दिया, अर्थात् बेड़ियां पहना दीं। नौकर, व्यापारी और रिश्तेदार तथा आसपास के सभी लोग घबराकर सेठ का साथ छोड़ गये। (सच ही है, स्वार्थी मित्र और रिश्तेदार विपत्ति आने पर साथ छोड़ भागते हैं ।) धन, मित्र एवं रिश्तेदारों से रहित सेठ महेश्वर के गले में चोरी का माल लटकाया गया, फिर गधे पर बिठाकर, सारे शरीर पर राख पोतकर, चोर जैसी आकृति (शक्ल) बनाकर उसको नगर में घुमाया। लोग सेठ की निन्दा करने लगे, 'राजा की भी चोरी करने वाला यह तो डाकू निकला।' निन्दा की आवाजों से चारों दिशायें भर गई। राजा के कर्मचारी उसकी लात-घूसों और लाठी से खबर लेने लगे। सेठ का मुह रंक जैसा हो गया था और उसकी सभी प्राशायें भंग हो गई थीं। महेश्वर सेठ की ऐसी अत्यन्त शोचनीय एवं दयनीय दशा देखकर प्रकर्ष ने अपने मामा से पूछा- 'मामा यह अद्भुत घटना देखी ? क्या यह इन्द्रजाल है, स्वप्न है, कोई जादू है, या मेरी बुद्धि का भ्रम है ? जो एक क्षण मात्र में सेठ की * शानो-शौकत, धन-दौलत, चापलूस, सगे-संबंधी सब चले गये। सारे लोग ही जैसे बदल गये। इसका तेज, अभिमान और पुरुषत्व सब समाप्त हो गया। [१-८] धनस्वरूप पर विमर्श के विचार विमर्श ने कहा - वत्स ! तूने जो कुछ देखा वह सब सत्य है. इसमें तेरी बुद्धि का भ्रम नहीं है । इसीलिये बुद्धिमान पुरुष धन का तनिक भी गर्व नहीं करते । यह धन ग्रीष्म ऋतु को गर्मी से तप्त पक्षी के कण्ठ जैसा चञ्चल है । ग्रीष्म की गर्मी से प्राकान्त सिंह की जीभ जैसा अस्थिर है। इन्द्रजाल की भांति अनेक प्रकार के अद्भुत विभ्रम उत्पन्न कर मन को नचाने वाला है । यह लक्ष्मी पानी के बुलबुले को भांति क्षण भर में नष्ट होने वाली है। इस सेठ में अप्रामाणिकता और अविवेक का इतना प्रबल दोष था कि उसके कारण वह अपने सन्मान और समग्र धन को क्षण भर में गवा बैठा । हे वत्स ! धन तो ऐसी वस्तु है कि जो प्राणी किसी प्रकार का दोष नहीं करते उनके पास से भो चला जाता है और उल्टे भय का कारण बन जाता है। जो फूक-फूक कर जमीन पर पर रखते हैं, उनके पास से भी धन क्षण भर में नष्ट हो जाता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । धन के दोष से धनवान प्राणी * पृष्ठ ४०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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