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________________ ५५० उपमिति भव-प्रपंच कथा में महामोह के वशीभूत, रागकेसरी द्वारा अंक (गोद) में बिठाया हुआ, विषयाभिलाष द्वारा प्रेरित, रति के सामर्थ्य से पराजित, काम-बारणों से हृदयविद्व लोलाक्ष अपने स्वरूप को भूल कर अपनी मृत्यु को निमन्त्रण देने के लिये रतिललिता को पकड़ने दौड़ा | अपने प्रवेश को रोकने में असमर्थ वह रतिललिता के पास पहुँच गया । पास पहुँचते ही दोनों भुजाएं फैलाकर रतिललिता को अपने प्रालिंगन - पाश में जकड़ने के लिये आगे बढ़ा | पहले तो रतिललिता विचार में पड़ गई कि यह क्या हो रहा है ? फिर अपनी स्वाभाविक स्त्री-बुद्धि से वह लोलाक्ष का प्राशय समझकर चौंक गई । भयभीत होने से उसका मदिरा का नशा उतर गया । परिस्थिति को पकड़ लिया । उस छुड़ाया तथा फिर समझकर वह जोर से भागने लगी । लोलाक्ष ने दौड़कर उसे श्रबला ने जोर लगाकर उस विषयान्ध राजा के पाश से अपने को दौड़ने लगी । राजा ने उसे फिर श्रा पकड़ा । नशे में धुत्त राजा के खींचतान कर अपने को फिर मुक्त किया और दौड़कर चण्डिका घुस गई तथा भय से थर-थर काँपती हुई चण्डिका देवी की मूर्ति के द्वषगजेन्द्र का प्रभाव : संघर्ष इसी समय महाराजा मकरध्वज ने द्व ेषगजेन्द्र को अपना प्रभाव दिखाने और समयानुकूल प्रायोजन करने की आज्ञा दी, अतः वह प्रकट हुआ । बाहुपाश से उसने मन्दिर के अन्दर पीछे छिप गई । प्रकर्ष ने द्वेषगजेन्द्र को देखा और बोला- 'मामा ! देखिये द्वेषगजेन्द्र आ गया है और साथ में अपने आठ बच्चे भी लेकर आया लगता है ।' विमर्श ने कहा'हाँ, भाई ! अब द्व ेषगजेन्द्र को अपना प्रभाव दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ है, अत: वह अपना कर्त्तव्य निभायेगा । अब तू केवल इसकी क्रीड़ा को ध्यान पूर्वक देखना ।' प्रकर्ष ने कहा- 'मैं ऐसा ही करूगा' यह कहकर वह अपनी दृष्टि को चारों तरफ घुमाते हुए ध्यान से देखने लगा । द्वेषगजेन्द्र ने राजाज्ञा को सुना और लोलाक्ष के शरीर में प्रविष्ट हो गया । द्वषगजेन्द्र के वशीभूत होकर लोलाक्ष ने सोचा - 'इस पापिन रतिललिता को मार ही डालना चाहिये। यह दुष्टा मुझ से प्रेम नहीं करती और मुझ से दूर भागती फिर रही है, अतः सर्वदा के लिये इसके जीवन का अन्त ही कर देना चाहिये ।' ऐसे विचार के साथ हो उसने अपने हाथ में तलवार पकड़ी और चण्डिका मन्दिर के गर्भ भाग में प्रविष्ट हो गया । वह मदिरा के नशे में इतना मदान्ध हो रहा था कि उसे यह भान ही नहीं था कि वह क्या कर रहा है । रतिललिता के स्थान पर उसने तलवार से चण्डिका देवी की प्रतिमा का मस्तक उड़ा दिया । रतिललिता वहाँ से भागकर मन्दिर के बाहर आकर जोर-जोर से चिल्लाने लगी- 'प्रार्यपुत्र ! रक्षा करो बचाओ ! बचाओ !!' उसकी चिल्लाहट सुनकर रिपुकंपन ऊंघ से जागृत हुआ और ४ पृष्ठ ३६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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