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________________ प्रस्ताव ४ : लोलाक्ष ५५१ अन्य लोग भी जाग गये। रिपुकंपन दौड़ता-दौड़ता आया और पूछा-- प्रियतमे ! तुझे किसका भय है ? उत्तर में रतिललिता ने उसके साथ लोलाक्ष ने कैसा अधम व्यवहार किया, वह सब संक्षेप में कह सुनाया। रतिललिता से रिपुकंपन ने सारा वृत्तांत सुना । सुनते ही रिपुकंपन पर भी द्वषगजेन्द्र का प्रभाव हो गया। उसने अत्यन्त तिरस्कार और स्पर्धापूर्वक अपने भाई लोलाक्ष को युद्ध करने के लिये ललकारा। सारे योद्धाओं में खलबली मच गई। सारे वन प्रदेश में जहाँ मद्यगोष्ठि हो रही थी और लोग नशे में ऊंघ रहे थे वे सब जाग गये 'क्या हुआ? क्या हुआ?' कहते हए वहाँ चारों तरफ कोलाहल मच गया और चारों प्रकार की सेना चारों तरफ से एकत्रित होने लगी, जिससे बड़ी धमाचौकड़ी मच गई । लोग नशे से चूर थे अतः उन्हें पता ही न लगा कि क्या हुआ । वातावरण से प्रेरित होकर और युवराज की ललकार सुनकर नशे में चूर सैनिक आपस में ही भिड़ गये । कायर कायर से, योद्धा योद्धा से, खच्चर वाला खच्चर वाले से, घुड़सार घुड़सवार से, ऊंट सवार ऊंट-सवार से, रथो रथो से, गज-सवार गज-सवार से यों परस्पर लड़कर वे एक दूसरे का नाश करने लगे। इस प्रकार बिना कारण अचानक बहुत बड़ी संख्या में सैनिक हताहत हो गये । इधर रिपुकंपन की ललकार सुनकर लोलाक्ष उससे लड़ने के लिये उसके सामने आ गया। दोनों द्वषगजेन्द्र के वशीभूत थे, अत: वे भूल गये कि वे दोनों भाई हैं। फलतः मदिरा के नशे की मस्ती में एक दूसरे पर तलवार का प्रहार करने लगे। अन्त में अत्यन्त क्रोध से रिपुकंपन ने अपने बड़े भाई लोलाक्ष को धराशायी कर दिया जिससे लोगों में भारी खलबली मच गई। सुरा-सुन्दरी के भयानक परिणाम __ यह सब देखते हुए मामा-भारणजे नगर में प्रविष्ट हुए और जहाँ किसी प्रकार का विप्लव (गड़बड़) नहीं था ऐसे स्थान पर विश्राम करने बैठे। विमर्श ने फिर से बातचीत प्रारम्भ की। विमर्श-भाई प्रकर्ष ! द्वषगजेन्द्र का माहात्म्य देख लिया न ? प्रकर्ष-हाँ, मामा ! बहुत अच्छी तरह से देखा । इस प्रकार की विलासक्रीड़ा का परिणाम कैसा भयानक होता है, यह अच्छी तरह देखा। विमर्श - वत्स ! मदिरा पीने वालों का ऐसा ही पर्यवसान (अन्त) होता है। मदिरा के नशे में चूर प्राणी, अगम्या के साथ गमन करते हैं अर्थात् जिसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखना चाहिये उसी पर विषयासक्त होकर उससे गमन करते हैं। अपने सामने कौन खड़ा है, इसका भी उन्हें ध्यान नहीं रहता। अपने सगे भाई या अत्यधिक निकट सम्बन्धी का भी खून कर देते हैं। बिना कारण अपने ॐ पृष्ठ ३६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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