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________________ प्रस्ताव ४ : लोलाक्ष ५४६ की और उसके बाद देवी के सामने ही खुले मैदान में मदिरा पीने बैठ गया । राजा के साथ जो राजपुरुष और प्रजाजन आये थे वे भी वहीं घेरा बना कर मदिरा पीने बैठ गये । सुरापान हेतु अनेक प्रकार के रत्न-निर्मित मद्य पात्र राजा के सन्मुख एवं स्वर्णनिर्मित सुरापात्र प्रत्येक राजपुरुष के सन्मुख रख दिये गये । फिर सुरापान का क्रम चला । एक के बाद एक सभी मदिरा पीने लगे । कोई अधिक उल्लसित होकर आनन्द से अधिक मदिरा पी रहा है तो कोई नशा चढ़ाने के लिए हिण्डोल राग गाता । फिर लाल मदिरा का प्याला चढ़ाता है । कोई वाद्यवादक को आग्रह पूर्वक मदिरा पिला रहा है । नृत्य चल रहा है। कोमल किशलय जैसे ललनाओं के हाथों से मद्यपात्र ले जाये जा रहे हैं । प्रियतमा के अधरबिम्बों ( होंठों) का चुम्बन-पान किया जा रहा है | आवेश में कभी-कभी नीचे का होठ दांतों से कट रहा है । मदिरा की मस्ती में लीड की स्थिति अधिकाधिक बढ़ती जा रही है । छोटे-बड़े की लज्जा - मर्यादा और अच्छे-बुरे की शंका छूटती जा रही है । स्त्रियों के सुन्दर मुखों की तरफ सभी की नजरें श्राकृष्ट हो रहो हैं । गम्भीरता नष्ट हो रही है । बड़े-बड़े मनुष्य छोटे बालकों जैसी चेष्टायें कर रहे हैं । समस्त प्रकार के न करने योग्य प्रकार्य इस मदिरा गोष्ठि में हो रहे हैं । लोलाक्ष की कामान्धता लोलाक्ष राजा का एक छोटा भाई रिपुकंपन था जो अभी युवराज के पद पर था । वह भी लोलाक्ष के साथ यहाँ नगर से बाहर उद्यान में आया था । खूब मदिरा पीकर वह ऐसा मस्त और परवश हो गया था कि कार्य - अकार्य को सोचने की स्थिति में ही नहीं रह गया था । ऐसी अवस्था में उसने अपनी पत्नी रतिललिता आज्ञा दी कि 'प्रियतमे ! अब तू नाच कर ।' यद्यपि उसे अपने से बड़े लोगों के सामने नाचने में लज्जा आ रही थी तब भी अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन करने की उसमें शक्ति नहीं होने से अपनी इच्छा के विरुद्ध भी रतिललिता नाचने लगी । जैसे ही वह अपने लावण्यपूर्ण कोमल अंगोपांगों का प्रदर्शन करती हुई मदिरा के नशे में मस्त होकर नाचने लगी वैसे ही कामदेव ने अनवरत अपने सैकड़ों तीर लोलाक्ष को मार कर बींध दिया और उसे अपने वश में कर लिया, जिससे राजा अपने छोटे भाई की पत्नी पर गाढ़ श्रासक्त हो गया । परन्तु अपनी कामवासना की तृप्ति करने का कोई उपाय उसे काफी समय तक नहीं सूझ पड़ा, अतः वह कामाहत दशा में कुछ देर तक बैठा रहा । इधर अधिक मदिरापान से समस्त राज्य मण्डल मदमत्त हो रहा था । इनमें से मदिरा के प्रभाव से कई चेतना शून्य होकर जमीन पर लेट गये थे, कई वमन कर रहे थे और कई झौंके खा रहे थे । सारी जमीन उल्टी से अपवित्र और कीचड़ वाली हो गई थी । कौए और कुत्ते उधर झपट रहे थे और लोगों के मुह चाट रहे थे । रिपुकंपन भी ऊंघ रहा था, केवल रतिललिता जागृत थी । उस समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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