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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
अन्तरंग लोगों के अनेक रूप
प्रकर्ष-मामा ! यदि वे सब यहाँ पाये हए हैं तो चित्तवृत्ति अटवी में महामोह राजा का जो मण्डप हमने पहले देखा है, वह तो बिलकुल खाली पड़ा होगा?
विमर्श-नहीं भाई ! ऐसा कुछ नहीं है । मैंने तुम्हें पहले भी बताया था कि वे अन्तरंग के लोग अनेक रूप धारण कर सकते हैं । यद्यपि वे यहाँ मकरध्वज के राज्य में आये हैं, फिर भी वे सभी महामोह के स्थान पर भी इसी प्रकार बैठे हुए हैं । मकरध्वज का राज्य तो थोड़े दिन चलने वाला है इसलिए वह क्षणिक है, जब कि महामोह का राज्य तो लम्बे समय से स्थापित है, अनन्त कल्पों से प्रवृत्त है और अनन्त काल तक रहने वाला है। अतः इनके लिये वहाँ से तो हटने का प्रश्न ही नहीं उठता । महामोह का राज्य तो सम्पूर्ण विश्व में फैला हुआ है, जब कि इस मकरध्वज का राज्य तो मात्र मानवावास नगर में है। यह ता महामोह राजा का स्वभाव ही है कि वह चिरन्तन (पुरानी) परिपाटी को हमेशा निभाता रहता है । यही कारण है कि स्वयं द्वारा अभिषिक्त महायोद्धा मकरध्वज की सेवा में स्वयं ही उसका मन्त्री बनकर रहता है । हे भद्र ! महामोह का - सभास्थल तो अभी भी अविचल है, विजयवंत ही है । यहाँ अभी जो लोग दिखाई दे रहे हैं, वे सभी अभी भी महामोह के राज्य में तो अपने मूल (असली) स्वरूप में विद्यमान हो हैं ।
प्रकर्ष-मामा ! आपका विस्तृत विवरण सुनकर मेरे मन में जो शंका उठी थी वह अब शांत हुई।
२२. लोलाक्ष [भाणजे प्रकर्ष को नये-नये दृश्य देखने का अत्यधिक उत्साह था। पिताजी द्वारा दिया गया समय भी अभी शेष था । आन्तरिक तत्त्ववेदी विमर्श भारगजे की सभी जिज्ञासायें सन्तुष्ट कर रहा था। अतः प्रकर्ष भवचक्र नगर के कौतुक अधिक उत्साह से देखने लगा, साथ ही विमर्श उसके जानने योग्य बातों का स्पष्टीकरण भी करने लगा। मद्यपों की दशा
हाथी की अम्बाडी पर बैठे लोलाक्ष राजा को पहले देख ही चुके हैं। अब वह लोलाक्ष हाथी से नीचे उतरा और उसने सामने ही चण्डिका देवी का मन्दिर था उसमें प्रवेश किया। पहले चण्डिका देवी को मदिरा चढ़ाई, फिर देवी की पूजा * पृष्ठ ३६७
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