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________________ प्रस्तावना 'जीवन्मुक्तिकल्याण' का नायक राजा जीव, अपनी प्रियतमा बुद्धि के साथ, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति दशाओं में भ्रमण करता हुआ, संसार के दु:खों से जब विषण्ण हो जाता है और जीवन्मुक्ति की कामना करता है, तो काम-क्रोध आदि छः रिपु, उसके इस कार्य में बाधा डालते हैं । तब, वह दया, शान्ति आदि पाठ आत्मगुणों के द्वारा काम आदि को ध्वस्त करता है । अन्ततः, चतुर्थ आश्रम में प्रवेश करके, साधन चतुष्टय प्राप्त करता है । और, ब्रह्म-ज्ञान पाकर, जीवन्मुक्ति का लाभ उठाता है । शिव का प्रसाद और गुरु की कृपा, जीवन्मुक्ति में कितनी सहयोगी है, यह, कवि ने सुन्दरता के साथ बतलाया है । नल्लाध्वरी, प्रानन्दराय मखी के ही समकालिक प्रतीत होते हैं। नल्लावरी ने, रामचन्द्र दीक्षित के समकालीन रामनाथ दीक्षित से विद्याध्ययन किया था, और २० वर्ष की उम्र में ही उन्होंने 'शृङ्गारसर्वस्व' (भारण) व 'सुभद्रापरिणय' (नाटक) की रचना की थी। बाद में, परमशिवेन्द्र तथा सदाशिवेन्द्र सरस्वती से वेदान्त का अध्ययन करने के बाद, उक्त दोनों नाटकों की रचना की। 'अद्वैतरसमञ्जरी' वेदान्तग्रंथ की रचना भी, इसी काल से सम्बन्ध रखती है। इनमें, परस्पर श्लोक साम्य भी है। पद्मसुन्दर का 'ज्ञान-चन्द्रोदय' और अनन्तनारायण कृत 'मायाविजय' भी रूपक प्रधान रचनाएं हैं। इन्द्रहंसगरिण रचित 'भुवन-भानुकेवली चरित' और यशोविजय कृत 'वैराग्यकल्पलता' भी रूपकात्मक रचनाएं हैं । भुवनभानुकेवली चरित का नायक बलि राजा है। विजयपुर के चन्द्र राजा के पास जाकर, अपना चरित वह स्वयं कहता है । विद्वानों का अनुमान है कि यह रचना १४वीं शती की होनी चाहिए। 'वैराग्यकल्पलता' सिद्धर्षि की उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा के आधार पर तैयार की गई प्रतीत होती है। इसके ६ स्तबकों में, अनुसुन्दर चक्रवर्ती की कथा के बहाने से, जीव के संसरण की व्यथा-कथा और उससे छुटकारा पाने का उपाय, रूपकात्मक शैली में वरिणत है। इन उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि दर्शन के दुरूह तत्त्वों को रोचक शैली में प्रस्तुत कर, जनसाधारण में उनका प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से, कविगणों ने प्रतीक रूपक स्वरूप वाले नाटकों/काव्यों को माध्यम बनाया। परन्तु, कृष्णानन्द वाचस्पति का नाटक 'अन्ताकरण नाट्य परिशिष्ट' एक विशेष प्रकार का कौतुहल पैदा करने वाला नाटक है। इसके पद्यों के दो-दो अर्थ हैं। एक अर्थ तो व्याकरण के नियमों की व्याख्या करता है, जबकि, दूसरा अर्थ, दर्शन और नीति की शिक्षा देने में आगे आ जाता है । सम्भवतः, संस्कृत-साहित्य का यह एकमात्र नाटक १. श्री शंकर गुरुकुल, श्रीरंगम् से प्रकाशित-१६४४ ई० २. कलकत्ता से १८८४ में प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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