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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
है, जिसमें अभिनय के द्वारा व्याकरण के तत्त्व, प्रदर्शित किये गये हैं । अपने द्विविधतात्पर्य के कारण, यह नाटक विशेष महत्त्व का हकदार बन जाता है ।
मलयालम में लिखा गया 'कामदहनम्' सुप्रसिद्ध रूपक रचना है । इसी श्रेणी का साहित्य हिन्दी भाषा में भी है, परन्तु, बहुत थोड़ा सा । दामोदरदास की रचना 'मोह-विवेक की कथा' एक संक्षिप्त रूपकात्मक रचना है । जिसकी पाण्डुलिपि पिरानसुख जी ने १८६१ सम्वत् में की थी। इसमें, मोह और विवेक, काम और लोभ, क्रोध और क्षमा आदि में परस्पर युद्ध का वर्णन किया गया है। जिसके अन्त में, विवेक की विजय दिखलाई गई है। श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की 'भारत-दुर्दशा' और 'भारत-जननी' तथा श्री जयशंकर प्रसाद की 'कामना' और 'कामायनी' रचनाओं को, हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट रूपकात्मक रचनाएं माना जा सकता है।
यूरोप के मध्यभाग में, इसी प्रकार के नाटक विद्यमान थे, जिन्हें 'मारेलिटी' नाम से जाना जाता था। इन नाटकों का मुख्य उद्देश्य होता था-'कल्पित पात्रों को मंच पर लाकर, उनके माध्यम से दार्शनिक और धार्मिक तत्त्वों को स्पष्ट करना।' विज्ञान युग का प्रारम्भ होने पर, ये धार्मिक नाटक यूरोप में तो बन्द हो गये, किन्तु, भारत में, इनकी धारा/परम्परा, शताब्दियों से जन-मन रञ्जन करती चली आ रही है।
भारतीय वाङमय में, विशेषकर संस्कृत साहित्य में रूपक/प्रतीक पद्धति पर लिखे गये ग्रंथों का, यह संक्षिप्त इतिहास है। जिसके अनुशीलन से यह स्पष्ट होता है कि उपमान-उपमेय पद्धति का सहारा लेकर, संशय, मोह, भ्रम, अज्ञान आदि से ग्रस्त जीवात्मामों को प्रबोध देने की परम्परा काफी कुछ प्राचीन है। किन्तु, विस्तृत या वृहदाकार ग्रन्थ की सर्जना, इस पद्धति के बल पर करने का साहस, सिद्धर्षि से पहिले, कोई भी नहीं कर सका। हाँ, इससे पूर्व श्रीमद् भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में, पुरंजन का आख्यान अवश्य मिलता है । पुरंजन की विषयासक्ति ने उसे जो भवभ्रमण कराया है, उसी का विवेचन इस पाख्यान में है। दरअसल, यह पुरंजन, स्वस्वरूप को भूलकर, स्त्री-स्वरूप पर इतनी गाढ़-आसक्ति बना लेता है कि उसी के दिन-रात चिन्तन की बदौलत, अगले जन्म में, उसे खुद स्त्री रूप की प्राप्ति होती है । पुरंजन का भव-विस्तार चार अध्यायों में, कुल १८१ श्लोकों में वरिणत है।
___ इस वर्णन में बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियां, प्राण, वृत्ति, स्वप्न, सुषुप्ति, शरीर और उसके नव-द्वार आदि के रोचक रूपक दर्शाये गये हैं। यहाँ, पुरंजन को ब्रह्मस्वरूप हंसात्मा बतलाया गया है और स्व-बोध के अभाव को पति-वियोग के रूप में चित्रित किया गया है । अन्त में, इस सारी रूपक कथा का रहस्य, स्पष्ट किया गया है।
१. लिखितं पिरानसुखजी फीरोजाबाद में, सं० १८६१, नागरी प्रचारिणी सभा पुस्तकालय
· में सुरक्षित पाण्डुलिपि
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