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________________ प्रस्ताव ४ : वसन्तराज और लोलाक्षा बैठकर तू अन्य राजाओं की सारी आमदनी हड़प मत करना । जिन्हें जो अधिकार मिले हुए हैं, उन्हें उन अधिकारों का उपयोग करने देना और पुरानी प्रीति के अनुसार सब के साथ अच्छा व्यवहार करना।' मकरध्वज ने भी मोहराजा की इस प्रज्ञा को शिरोधार्य किया। फिर सभी मिलकर मानवावासपुर आये। सब ने एकत्रित होकर वहाँ मकरध्वज का राज्याभिषेक किया और उसके निर्देशानुसार सभी राजाओं ने अपने-अपने पद का भार संभाल लिया । लोलाक्ष पर मकरध्वज की अदृष्ट विजय भाई प्रकर्ष ! अभी तूने जिस राजा को हाथी के होदे पर बैठे देखा है, वह मानवावासपुर के ललितपुर शहर का लोलाक्ष नामक बहिरंग प्रदेश का राजा है। जब मकरध्वज को मानवावासपुर का राज्य सौंपा गया तब उसने अपनी शक्ति से इस राजा की सेना को और नगरवासियों को इस नगर से खदेड़ कर बाहर के उद्यानवनों में भेज दिया है और उसे जीत लिया है। पर, यह बेचारा लोलाक्ष ऐसा मूढ है कि अभी तक समझ ही नहीं पाया है कि मकरध्वज ने उसे जीत लिया है। राजा के साथ जिन नागरिकों को नगर से बाहर निकाल दिया गया है वे भी ऐसा नहीं मानते कि मकरध्वज ने उन्हें और उनके राजा को जीत लिया है। हे वत्स ! इसीलिये महामोह राजा के सहयोग से एवं मकरध्वज के प्रताप से ये लोग अभी-अभी तूने देखी ऐसी विचित्र-विचित्र चेष्टायें कर रहे हैं। योगांजन से अन्तरंग-दर्शन प्रकर्ष - मामा ! यह मकरध्वज इस समय कहाँ है ? विमर्श- अरे, भाई प्रकर्ष ! वह तो अपने परिवार सहित यहाँ निकट में ही है और इन सब लोगों से नाटक करवा रहा है। प्रकर्ष - तब वह यहाँ क्यों नहीं दिखाई देता ? विमर्श-भाई ! मैंने तुझे पहले ही बता दिया था कि ये अन्तरंग लोग बार-बार अदृश्य हो सकते हैं और योगियों की भांति अन्य पुरुष के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं । * अभी वे सब इन लोगों के शरीरों में प्रवेश कर गये हैं, अपनी विजय से अत्यन्त हर्षित हो रहे हैं और इनके प्रताप से लोग जो नाटक कर रहे हैं उसे वे भीतर बैठे-बैठे दर्शक बनकर आनन्द से देख रहे हैं। प्रकर्ष -- जब ये लोग अन्य लोगों के शरीर में प्रविष्ट हैं तब आप इन्हें प्रत्यक्ष रूप से कैसे देख रहे हैं ? विमर्श-भाई ! मेरे पास विमलालोक योगांजन है, जिसे आँख में लगाने से मैं इन मकरध्वज राजा आदि सब को स्पष्टतः देख सकता हूँ। * पृष्ठ ३६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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