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उपमिति-भव-प्रपंच-कथा
तब महामोह राजा इस शहर का राज्य मुझे सौंप देते हैं ? ऐसी स्थिति में तुझे विरह की शंका कैसे हुई ?' उत्तर में वसन्त बोला-'भाई मकरध्वज ! कमनीय वचनों द्वारा इस बात की याद दिलाकर तुमने मुझे नवजीवन दिया है, अन्यथा मैं तो यह बात भूल ही गया था । जब बिना अवसर या प्रयोजन अचानक चिन्ता आ जाती है, तब मित्र-विरह की आशंका से प्राणी अपने हाथ में लिए हए कार्य को भी कभी-कभी भूल जाता है । तुमने बहुत अच्छी याद दिलाई। अब मैं विदा होता है। तू भी मेरे पीछे-पीछे शीघ्र ही वहाँ आ जाना।' मकरध्वज ने अपने मित्र की विजय (सफलता) की कामना की। पश्चात् वसन्तराज तुरन्त ही इस मानवावासपुर में आ गया। भिन्नभिन्न उद्यानों मैं इसने अपना कैसा प्रभाव जमाया, यह तो अभी-अभी मैं तुझे दिखा ही चुका हूँ। मकरध्वज का राज्याभिषेक
__ भाई प्रकर्ष ! वसन्तराज के विदा होने के पश्चात् मकरध्वज ने विषयाभिलाष मंत्री से निवेदन किया कि लम्बे समय से चली आ रही परिपाटी का पालन किया जाना चाहिये । फिर उसने बसन्त से जो बात हई वह बता कर याद दिलाया कि वह कालपरिणति देवी की प्राज्ञा से मानवावासपुर गया है । मन्त्री ने सारा वृत्तान्त रागकेसरी राजा से कहा और रागकेसरी ने अपने पिता महामोह महाराजा को कह सुनाया। महामोह ने विचार किया कि, अरे ! हाँ. प्रतिवर्ष जब-जब वसन्त को मानवावास भेजा जाता है तब-तब उस नगर का आंतरिक राज्य मकरध्वज को सौंपा जाता है । अत: इस बार भी उस नगर का राज्य मकरध्वज को देना चाहिये। क्योंकि, जो उचित परम्परा लम्बे समय से चली आ रही हो उसका उल्लंघन स्वामी को भी नहीं करना चाहिये और लम्बे समय से जो सेवक इमारी सेवा कर रहा हो उसका सम्यक् पालन और उसकी उन्नति करनी चाहिये । ऐसा विचार कर महामोह महाराजा ने अपनी राज्यसभा के सभी राजाओं (सदस्यों) को बुलवाया और कहा'आप सभी लोग सुनिये । भवचक्र राज्य के प्रांतरिक शहर मानवावास का राज्य थोड़े समय के लिये मकरध्वज को प्रदान कर रहा हूँ । अतः आप सब को भी मकरध्वज के सैनिकों की तरह उसके साथ ही रहना है। आप वहाँ मकरध्वज का राज्याभिषेक करें, इसकी आज्ञा का पालन करें, सभी राज्यकार्य उचित प्रकार से पूर्ण कर और सभी स्थानों पर बिना पीछे हटे सजगतापूर्वक कर्तव्य का पालन करें। मैं स्वयं भी मकरध्वज के राज्य में उसका प्रधानमन्त्री बनकर काय करूगा । आप सब तैयार हो जायें। हम सब मानवावास नगर जायेंगे ।' सभी राजाओं ने जमीन तक मस्तक झुकाकर महाराजा के वचनों को 'जैसी देव की आज्ञा' कहकर स्वीकार किया । फिर महाराजा ने मकरध्वज से कहा-'भद्र ! मानवावास की गद्दी पर
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