SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 656
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ४ : वसन्तराज और लोलाक्ष ५४३ कार्य करने में इन लोगों की हिम्मत भी असीम है। अहो ! प्रमाद भी अमर्यादित है । अहो ! लोक-प्रवाह में बहते चले जाना भी अद्भुत है । अहो ! इनकी दीर्घदृष्टि का अभाव भी विस्मयकारक है । अहो ! इनके चित्तविक्षेप भी अद्भुत ही लगते हैं। अहो ! आगे-पीछे का विचार नहीं करने की इनकी पद्धति भी विशेष ध्यान देने योग्य है । अहो ! उल्टे-सीधे विचार और घोटालों का तो यहाँ कोई पार ही नही है। अहो ! अशुभ भावना के प्रति इनको प्रोति भी असाधारण है। अहो ! काम-भोग भोगने की अधम तृष्णा भी अपरिमित है । अहो ! अज्ञान (अविद्या) से मारे हुए इन बेचारों के चित्त की दशा भी बड़ी ही शोचनीय है। प्रकर्ष उन सब लोगों के विलास को * अाँखें फाड़-फाड़ कर देख रहा था नब उसके मामा ने उससे कहा--भाई प्रकर्ष ! ये सब बाह्य प्रदेश में रहने वाले प्राणी हैं । महामोह आदि जिन राजाओं के सम्बन्ध में मैंने तुझे पहले बताया था, यह सब उन्हीं का प्रताप है। प्रकर्ष मामा ! किस घटना के कारण, किस राजा के प्रताप से और किसलिये ये लोग ऐसो चेष्टाएँ करते हैं ? विमर्श--भाई ! मैं विचार कर इसका उत्तर देता हूँ। फिर विमर्श ने ध्यान किया, आँखें बन्द कों और विचार पूर्वक मन में निश्चय कर भारगजे से बोलावसन्त और मकरध्वज मैत्री भाई प्रकर्ष ! सुनो, चित्तवृत्ति महाटवी के प्रमतत्ता नदी के तट पर स्थित चित्तविक्षेप मण्डप में महामोहराज से सम्बन्धित तृष्णा वेदिका (मञ्च) पर मकरध्वज नामक एक राजा सिंहासन पर बैठा था, यह तो तुमने देखा ही था । यह वसन्त उसी मकरध्वज का विशिष्ट प्रिय मित्र है । जब शिशिर ऋतु समाप्त प्रायः होने लगी थी उस समय वसन्त अपने मित्र मकरध्वज के पास किसी काम से गया था और कुशलक्षेम के पश्चात् थोड़े समय तक सुखपूर्वक उसके पास रहा था। कर्मपरिणाम महाराजा और कालपरिणति महारानी का यह वसन्त विशेष अनुचर है। इस वसन्त ने अपनी एक गुप्त बात अपने प्रिय मित्र मकरध्वज से कही-'भाई ! महारानी की आज्ञा से भवचक्र नगर के मानवावास नामक अन्तरंग के अवान्तर नगर में मुझे जाना है, अतः कुछ समय के लिये तेरा विरह सहन करना पड़ेगा, इसीलिये तुमसे मिलने यहाँ आया हूँ।' वसन्त की बात सुनकर मकरध्वज ने हर्ष से पुर्जाकत होकर कहा-'मित्र ! गत वर्ष जब मैं इस मानवावास शहर में तुम्हारे साथ था तब कितना आनन्द प्राया था, क्या तू इसे भूल गया ? पर मेरी विरह-वेदना से क्यों खिन्न होगा? क्या तू भूल गया कि जब-जब महारानी तुझे मानवावास में भेजती है तब * पृष्ठ ३६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy