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________________ ५४६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा प्रकर्ष- मेरी आँखों में भी यह सुरमा लगाइये ना, जिससे मैं भी मकरध्वज आदि राजानों को आँखों से देख सकू। प्रकष की प्रार्थना पर मामा ने उसके नेत्रों में विमलालोक योगाञ्जन लगाया और कहा कि वत्स ! अब तुम इनके हृदय प्रदेश को तरफ देखो। इनके हृदय प्रदेश में ये सब लोग तुम्हें बैठे दिखाई देंगे । प्रकर्ष ने वैसा ही किया। तदनन्तर प्रकर्ष हर्षित होकर कहने लगा-अहा मामा ! अब तो महामोह प्रादि से परिवेष्टित राज्याभिषिक्त मकरध्वज मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है । देखिये न मामा! हाथ में धनुष लेकर वह अपने सिंहासन पर बैठा-बैठा ही बाण को कान तक खींच कर छोड़ रहा है और लोगों के हृदय को बींध रहा है । लोग इसके बाणों के प्रहार से विह्वल हो गये हैं। राजा लोलाक्ष भी इसके बाणों के प्रहार से जजंरित हो गया है। इन सब को ऐसी विकारजन्य प्राकुलता को स्थिति में देखकर भूपति कामदेव अपनो स्त्री रति के साथ प्रमुदित होकर खिलखिला कर हँस रहा है और तालियाँ पोट-पीटकर आनन्द ले रहा है । इसके नौकर और दास भी जोर-जोर से बोल रहे हैं -अहा ! क्या निशाना लगाया ! क्या बाण मारा ! अच्छा प्रहार किया, आदि । महामोह आदि भी मकरध्वज के समक्ष खड़े-खड़े हंस रहे हैं। मामा ! आज तो आपने बहुत सुन्दर देखने योग्य दृश्य दिखाया। मैं अधिक क्या कहूँ ? इस राज्य को लीला का भोग करते हुए कामदेव का दिखाकर आपने सचमुच में मुझ पर बड़ी कृपा की। [१-५] मकरध्वज द्वारा महामोहादि का कार्य-निर्धारण विमर्श-अरे भाई ! तूने अभी देखा ही क्या है ? इस भवचक्र नगर में तो ऐसे-ऐसे देखने योग्य अन्य कई दृश्य हैं । इस नगर में तो देखने योग्य अनेक नाटक होते ही रहते हैं। प्रकर्ष-मामा ! जब आप मुझ पर ऐसे अनेक दृश्य दिखाने की कृपा कर रहे हैं तब मेरी जिज्ञासा अब पूर्ण हुए बिना कैसे रह सकती है ? मामा ! एक बात और पूछ रहा हूँ। इस मकरध्वज के पास केवल महामोह, रागकेसरो, विषयाभिलाष, हास्य आदि तो सपत्नीक दिखाई दे रहे हैं, किन्तु इस समय द्वषगजेन्द्र, अरति, शोक आदि दिखाई नहीं देते, इसका क्या कारण है ? क्या वे मकरध्वज के राज्याभिषेक में नहीं आये ? विमर्श-भाई प्रकर्ष ! वे सब इस मकरध्वज के अभिषेक में भवचक्र नगर में आये हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। पर, मैंने तुझे बताया था कि ये अन्तरंग लोग कभी स्पष्ट दिखाई देते हैं और कभी अन्तर्ध्यान हो जाते हैं। द्वषगजेन्द्र, शोक आदि अभी अन्तान होकर मकरध्वज के राज्य में ही हैं, परन्तु वे राजा की सेवा करने के अवसर की प्रतीक्षा में है। इस समय महामोह आदि को सेवा करने का अवसर मिला है इसलिये वे सभा में प्रत्यक्ष होकर अपने कर्तव्य का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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