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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
हमा ऊर्ध्व (ऊपर) का राजा मानते हैं। भैया! वास्तव में तो इन दोनों राजानों में परस्पर कोई भेद नहीं है, अर्थात् दोनों अभिन्न हैं। अतएव यह एक हा राज्य है, ऐसा समझना चाहिये। (तात्पर्य यह है कि कार्य के परिणाम से उत्पन्न होने वाले फल को व्यवहार में मोह की प्रबलता अधिक होने से विशेष रूपक से समझाया गया है । वैसे मोह का राज्य और कर्मपरिणाम का राज्य एक ही है ।) [४६-५३]
प्रकर्ष-मामा ! मेरे हृदय में जो शंका उत्पन्न हुई थी उसका अब नाश हो गया है। आप जैसे विद्वान् मेरे साथ हों तब संदेह अधिक समय तक कैसे टिक सकता है ? [५४]
___ इस प्रकार ज्ञान चर्चा और विद्वत्ता पूर्ण वार्तालाप करते हुए मामा एवं भाणेज भवचक्र नगर के मार्ग पर आगे बढ रहे थे जिससे उन्हें मार्ग की थकान नहीं लग रही थी। यात्रा करते हुए कुछ दिनों बाद वे भवचक्र नगर में जा पहुँचे। [५५]
२१. वसन्तराज और लोलाक्ष विमर्श और प्रकर्ष जब भवचक्र नगर में पहुंचे तब शिशिर ऋतु समाप्त हो गई थी और कामदेव को अत्यन्त प्रिय तथा लोगों को अनेक प्रकार से उन्मादित करने वाली वसन्त ऋतु प्रारम्भ हो गई थी। मामा और भारगजा उस भवचक्र नगर के बाहर उद्यान में धूम रहे थे, तब उन्हें वसन्त ऋतु की उद्दामलीला का कैसा अनुभव हुआ ? सुनिये :-[५६-५७] वसन्त ऋतु वर्णन
इस ऋतु में दक्षिण दिशा से वेग से आते हुए पवन के जोर से हिलती हुई लताए ऐसी लग रही थीं मानो वसन्तोत्सव की खुशी में हाथ उठा-उठा कर नाच रही हों। महाराजाधिराज मोह राजा के अत्यन्त प्रिय मित्र कामदेव का मानो राज्याभिषेक के समय जय-जय शब्दोच्चारण करती हो, वैसे ही कोकिलाओं के मधुर कण्ठ-निसृत मधुर कुहु-कुहु से और अन्य पक्षियों के मधुर कलरव मानो इन सब से संयुक्त बसन्त ऋतु गुणगान कर रही हो। विलास करती हुई आम्र-मञ्जरियाँ ऐसी लग रही थीं मानो युवतियाँ अपनी तर्जनी से युवाओं का तिरस्कार कर रही हों। रक्त अशोक अपने नवीन सुकोमल लाल-लाल पत्तों के समूह रूप रचे हुए चपल हाथों से इशारे करके बुला रहा हो । विशाल एवं उन्नत पर्वत शिखरों पर बड़े-बड़े वृक्ष मलय पवन के वेग से आन्दोलित होकर ऐसे मस्तक भृका रहे थे मानो वे सभी वसन्त ऋतु का अभिवादन कर रहे हों । नव विकसित
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