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________________ प्रस्ताव ४ : भवचक्र नगर के मार्ग पर ५३७ - कर्मपरिणाम मोह राजा को अपने से भिन्न नहीं मानता, पर ऐसा मानता है जैसे वे दोनों अभिन्न हों। [३३-३९] भाई प्रकर्ष ! तुमने जो पहले राजसचित्त और तामसचित्त नामक दो बड़े नगर देखे हैं वे इस मोह राजा को कर्मपरिणाम महाराजा ने पारितोषिक में दिये हैं। इसी कारण मोह राजा की कुछ स्व मी-भक्त सेना इन दोनों नगरों में रहती है और शेष समस्त सेना चित्तवृत्ति अटवी में रहती है तथा युद्ध के लिये निरन्तर सन्नद्ध रहती है। [४०-४१] प्रकर्ष-मामा ! एक प्रश्न और पूछना चाहता हूँ। कर्मपरिणाम और मोह राजा के राज्य उन्हें अपने बड़ेरों से प्राप्त हुए हैं या उन्होंने ये राज्य किसी अन्य राजा से छीन कर प्राप्त किये हैं ? [४२] विमर्श-भाई प्रकर्ष ! न तो यह उनके बाप-दादों का राज्य है और न ही यह उन्हें क्रमशः परम्परा द्वारा उनसे प्राप्त हुआ है। यह तो दूसरों का राज्य है जिसे इन्होंने बलात्कार पूर्वक हरण कर उसके अधिपति बन बैठे हैं । जैसा कि मैं पहले कह चुका है कि जब तक प्राणी कर्म से आवृत रहता है और जब तक बाह्य प्रदेश में रहता है तब तक वह संसारी जीव कहलाता है। ऐसे प्राणी को ये अपने वीर्य (शक्ति) से चित्तवृत्ति रूपी महाटवी में से खदेड़ कर, निकाल कर उससे अटवी का राज्य छीन कर ये लोग अपनी शक्ति से उस अटवी पर राज्य करते हैं । इसमें कोई संशय नहीं है । [४३-४५] प्रकर्ष-मामा ! साथ में यह भी तो बताइये कि इस प्रकार दूसरों के राज्य को हरण किये इन्हें कितना समय हुआ है ?* विमर्श भाई ! यह राज्य इन दोनों राजाओं ने कब लिया है यह तो मैं नहीं जानता, परन्तु इस विषय का प्रान्तरिक रहस्य क्या है, यह तुझे समझाता हैं, जिससे तेरे मन का सन्देह मिट जायगा। कर्मपरिणाम महाराजा कभी किसी को कुछ दे देता है और कभी किसी से दिया हुआ वापस छीन लेता है, यह उसका स्वभाव है। उसके सब सामन्तों के मुकुट उसके पाँवों में झुकते हैं और वह इतने अच्छे संयोगों में है कि उसके प्रभाव मात्र से सभी कार्यों का विस्तार सिद्ध हो जाता है । वह राजाधिराज, महान राजा और राज्य सिंहासन का स्वामी है। यह महामोह राजा उसकी सेना का परिपालक (रक्षक), उसकी प्रच्छन्न आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाला, उसके सैन्यबल और कोष की वृद्धि करने वाला तथा उसको आज्ञा का अक्षरशः पालन करने वाला है। फिर भी वह अधिक पुरुषार्थी होने से राज्य कार्य में अपनी इच्छानुसार राजाज्ञा का अनुपालन करता है। लोगों में ऐसी चर्चा चलती है कि मोह राजा पराक्रमी है, महारथी योद्धा है और कर्मपरिणाम तो मात्र नाटकप्रिय है। इसलिये पण्डित लोग तो महामोह राजा को ही महासिंहासन पर बैठा * पृष्ठ ३८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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