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प्रस्ताव ४ : महामोह-सैन्य के विजेता ५३१ चितमन्तर्गतं दुष्टं, न स्नानाद्य विशुध्यति ।
शतशोऽपि हि तद्वौतं, सुराभाण्डमिवाशुचि ।। चित्त के अन्दर रहे हुए दुष्ट भावों की शुद्धि स्नान आदि से नहीं हो सकती, जैसे अपवित्र मदिरा पात्र को सौ बार जल से धोने पर भी वह पवित्र नहीं हो सकता।
विद्वानों ने उपरोक्त निर्णय इसीलिये किया है कि जल-स्नान से शरीर पर लगा हुमा मैल क्षण भर के लिये दूर हो जाता है किन्तु सदा के लिये नहीं, क्योंकि मनुष्य के शरीर में असंख्य रोमकूप हैं। इन्हें जितना चाहें धोते रहें परन्तु उनमें से निरन्तर बदबूदार पसीना आदि अशुचि पदार्थ निकलते ही रहते हैं । देव-पूजा या अतिथि-पूजन के आदि प्रसंगों पर या भक्ति के कारण स्नान करना पड़े तो वह जल-शद्धि निन्दित नहीं है अर्थात उचित है। तात्पर्य यह है कि तत्त्व के जानकर विद्वान् को जल-शुद्धि या जल-स्नान का विशेष प्राग्रह नहीं रखना चाहिये, क्योंकि ऐसा आग्रह एक प्रकार की मूर्खता ही है। इस प्रकार विशुद्ध ज्ञान से पूर्ण बुद्धि वाले पुरुष प्रसंग वश जल-शुद्धि भी करते हैं। हे वत्स ! ऐसे महात्माओं को इस भव और परभव में अनेक प्रकार के दुःख देने वाली यह जुगुप्सा भी नष्ट हो जाती है और इस जुगुप्सा के नष्ट हो जाने के कारण उनके कार्य-साधन में बाधक नहीं बनती। [६२२-६३४] . भाई प्रकर्ष ! जिनकी आत्मा सर्वज्ञ प्ररूपित पागमाभ्यास से सुवासित है और जो प्रमाद-रहित है, ऐसे महापुरुष को यह पूर्व-वणित जगत्शत्रु ज्ञानावरण और दर्शनावरण नामक राजा भी किसी प्रकार का त्रास नहीं दे सकते । ऐसे आशा रहित, इच्छा रहित, दान देने वाले, अतुल-वीर्य-सम्पन्न पुरुषों का यह पूर्ववणित दानादि विघ्नकारक अन्तिम राजा अन्तराय भी क्या कर सकता है ? इनके अतिरिक्त भी मोह राजा के अन्य योद्धा, स्त्रियाँ, बच्चे आदि भी ऐसे प्राणी को किसी प्रकार की बाधा-पीड़ा नहीं दे सकते । बाह्य राजाओं में से ये विशेष चार राजा वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र तो बेचारे पूर्वोक्त गुणविशिष्ट प्राणियों का भला ही करते हैं, सदा उनके अनुकूल ही प्रवृत्ति करते हैं। [६३५-६४०]
भाई प्रकर्ष ! ऐसे महात्मा पुरुष स्वकीय वीर्य | पराक्रम के बल पर अन्तरंग सैन्य पर विजय प्राप्त कर निरन्तर आनन्द में ही रहते हैं, बाधा-पीड़ा रहित होते हैं और शांतचेता होते हैं। यह महामोह राजा अपने समस्त साधनों से बाह्य प्रदेश के प्राणियों पर आक्रमण करता है और उन्हें इस भव में और परभव में अत्यन्त दुःख देता है, किन्तु जो प्रारणी सदभावना रुपी अस्त्र से इस महाराजा को अपने वश में कर लेते हैं, उन्हें दुःख कैसे * हो सकता है ? दुःखोत्पत्ति के कारणों का ही समूल नाश हो जाने से उन्हें निर्बाध सुख-परम्परा प्राप्त होती है। भाई * पृष्ठ ३८५
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