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________________ ५३० उपमिति-भव-प्रपंच कथा हो। स्त्रियों का अपमानित व्यवहार, वध्यभूमि पर जाते हुए के समक्ष ढोल बजाने जैसा लगता है। स्त्रियों का नाटक फांसी की प्रेरणा करने जैसा और गायन रोने जैसा लगता है । स्त्रियों का दृष्टिपात विवेकी प्राणी को करुणा-दृष्टि जैसा, स्त्रियों के साथ विलास सन्निपात के रोगी को अपथ्य आहार जैसा और स्त्री को आलिंगन पाश में जकड़ना, सुरतादि क्रीडा करना तो सचमुच में नाटक जैसा ही लगता है । हे भद्र ! ऐसी प्रशस्त विचारधाराओं (भावनाओं) से जिनको आत्मा पवित्र हो गई है, ऐसे सत्पुरुष ही मकरध्वज (कामदेव) पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। [६१२-६१६] प्रकर्ष ! मैंने पहले बताया था कि कामदेव की पत्नी रति भी महाशक्तिशाली स्त्री है, पर ऐसे महापुरुष अपनी भावना के बल पर उसे भी जीत लेते हैं । इस प्रकार के जिन महापुरुषों का चित्त सद्भावना में सदा लवलीन रहता है, उनसे मोह राजा का पाँचवां योद्धा हास भी सदा दूर से दूर भाग जाता है। । १२०-६२१] भाई प्रकर्ष ! जिन पुरुषों का मन सद्भावना रूपी निर्मल जल से धुलकर पंक-रहित निर्मल हो जाता है और जो यथाशक्य किसी भी प्रकार का विपरीत आचरण नहीं करते, ऐसे प्राणियों को जुगुप्सा घणा) भी किसी प्रकार की पीड़ा नहीं दे सकती। जो तत्त्वज्ञान द्वारा निर्णय कर लेते हैं कि यह सारा शरीर अशुद्धि से व्याप्त है और अशुचिमय है, अतः इसे बार-बार जल से धोकर शुद्ध करने का वे आग्रह नहीं रखते हैं और न ही उन्हें यह क्रिया विशेष रूप से प्रिय ही लगती है। जो अशुचि से व्याप्त हो उसे ऊपर-ऊपर से जल से धोने से कैसे शुद्ध हो सकता है ? किसी भी प्रकार की निन्दा और अपवाद रहित प्रशस्त व्यवहार एवं विचार मन को शुद्ध करते हैं, वही सच्ची शुद्धि है, ऐसी उनके अन्तःकरण की दृढ मान्यता होती है । कहा भी है : सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।* सर्वभूतदया शौचं, जलशौचं तु पंचमम् ।। सत्य शौच है, तप शौच है, इन्द्रिय-निग्रह शौच है और सर्व प्राणियों पर दया करना पवित्रता है। जल से शुद्धि करना तो पांचवी और अन्तिम शौच (पवित्रता) है। अतः जल से कोई विशिष्ट शुद्धि नहीं होती। जल-शुद्धि की आवश्यकता ही न हो ऐसा भी नहीं है। यदि जल-शुद्धि करनो ही हो तो इस प्रकार करनो चाहिये कि जिससे अन्य जीवों का नाश न हो और किसी जीव को पोड़ा न पहुँचे। इसका कारण यह है कि जल तो निश्चित रूप के बाह्य मल की विशुद्धि के लिये है, पर अन्तरग पाप-मल को यह नहीं धो सकता। इसीलिये विद्वानों ने कहा है कि :* पृष्ठ ३८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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