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________________ प्रस्ताव ४ : महामोह-सैन्य के विजेता ... ५२९ करती है वे सिलसिलेवार जमाये हुए मात्र हड्डियों के टुकड़े हैं, इसको लक्ष्य में रख । भौंरे के समान काले चमकीले मनोहर केशपाश स्पष्टतः' स्त्रियों के हृदय का अन्धकार है, ऐसा चिन्तन कर । मूढ ! स्वर्ण कुम्भ का विभ्रम उत्पन्न करने वाले वक्षःस्थित दो उन्नत उरोज मांस के दो स्थूल पिण्ड ही हैं, समझ । तेरे चित्त को नचाने वाली मनोहारिणी भुजा रूपी दो लताएं चमड़े से प्रावृत्त दो लम्बी चञ्चल हड्डियाँ मात्र हैं। तेरा मन हरण करने वाले अशोक पत्र के समान मनोहर दो कोमल हाथ भी चर्म और मांस से आच्छादित हड्डियाँ ही हैं । स्त्री का त्रिवली युक्त उदर तेरे चित्त को आकर्षित करता है पर, मूर्ख ! वह तो मल-मूत्र और प्रांतड़ियों से भरा हुआ है। स्त्री की विशाल कटि (कमर) जो तेरे चित्त को खेचती है वह तो अनेक प्रकार के प्रशुद्ध पदार्थों को भर कर रखने की थैली मात्र है, ऐसा समझ । स्त्री की साथलों को मर्ख पुरुष स्वर्ण स्तम्भ जैसा मानकर उन पर रीझते हैं, पर वे तो चर्बी, मांस और प्रशुचि से भरे हुए दो नल मात्र हैं। चलते-फिरते रक्त कमल * जैसे उसके सुन्दर पैर स्नायुओं से प्राबद्ध हड्डियों के दो पिंजरे हैं। मूढ ! स्त्री के कामोद्दीपक मधुर वचन तुझे अमृत के समान कर्णप्रिय लगते हैं वे वस्तुतः अमृत नहीं अपितु हलाहल विष है। स्त्री का शरीर शुक्र और खून के मिश्रण से उत्पन्न हुआ है, जिसके आँख, कान, नाक, मुख, गदा और योनि रूपी नौ छिद्रों से निरन्तर मल निकलता ही रहता है । वस्तुतः नारी का शरीर अस्थियों की शृखला (सांकल) हैं । जीव ! तेरा स्वयं का शरीर भी इससे कुछ भिन्न नहीं है, वह भी अस्थिपिजर मात्र और मल से परिपूर्ण है। इस वास्तविकता को जानकर भी कौन ऐसा मूर्ख होगा जो अस्थिपंजर का अस्थिपिञ्जर से मिलाप करायेगा ? भले मनुष्य ! इस चमड़ी और प्रस्थों के मिलाप में तू क्यों आसक्त हो रहा है ? स्त्रियों का चित्त प्रचण्ड पवन से लहराती ध्वजा के अग्रभाग जैसा चञ्चल होता है। कौन समझदार व्यक्ति ऐसे चञ्चल हृदय पर रागबद्ध होने का साहस करेगा ? चपल तरंगों से चलायमान जल में पड़ते हुए चन्द्रबिम्ब को पकड़ने में कौन सफल हो सकता है ? [५६२-६११] नारी स्वर्ग और मोक्षदायक सन्मार्ग को रोकने में अर्गला के समान है और नरक द्वार की ओर प्रेरित करने वाली है। विद्यमान नारी को भोगने में न सुख है, न इसका साथ होने में सुख है और न इसके वियोग में आनन्द है । संक्षेप में, यह प्राणी को सुख का अंश भी प्राप्त नहीं करा सकती। अनेक प्रकार के अनर्थों की जड़, सुख-मार्ग के द्वार की अर्गला जैसो स्त्री पर स्नेह करना अपने गौरव को तुच्छता प्रदान करना है। इस प्रकार की वास्तविक स्थिति को जान कर भी मूढ मनुष्यों का स्त्रियों के प्रति आसक्ति पूर्ण व्यवहार देखता हूँ तब मुझे यह आचरण कैसा प्रतीत होता है, वह कहता हूँ। स्त्रियों का हंसना मुझ तो ऐसा लगता है जैसे कोई विदूषक दूसरे विदूषक को देखकर हँस रहा हो या उसे विडम्बना दे रहा * पृष्ठ ३८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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