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________________ ५१४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा होगा? (६) अरे मारे गो! अरे मारे गये ! आदि शब्दों से व्यर्थ भयभीत होकर, सत्वहीन होकर कभी-कभ अपने प्राण भी गंवा देते हैं और (७) ये अधम पुरुष अपयश के भय से अव्यवस्थित होकर करने योग्य कार्य भी नहीं करते। उपरोक्त सात प्रकार के पुरुषों के परिवार सहित यह भय बहिरंग प्राणियों में अपनी शक्ति का प्रयोग कर भय उत्पन्न करता रहता है । भय की आज्ञा से अधम पुरुष निर्लज्ज होकर युद्ध के मैदान से भाग खड़े होते हैं, शत्रुओं के पाँवों में गिरते हैं । हे भद्र ! अपने वशीभूत वाणी को यह इस भव में तो नचाता ही है, परभव में भोभियत्रस्तता के कारण दीर्धकाल तक संसार-समुद्र में भटकाता है कि कहीं उसका प्रता-पता ही नहीं लगता । इसकी एक हीनसत्वता हीनता) नामक प्राण-प्रिय पत्नी भी इसके शरीर में ही अभिन्न रूप से रहती है । वह इसके कुटुम्ब-परिवार का संवर्धन करती है । यह हीनसत्वता उसे इतनी अधिक प्रिय है कि वह उसे अपने शरीर से एक क्षण भी थक् नहीं करता है । यदि उसे पृथक् कर देता है तो हे भद्र ! यह निश्चित रूप से मरण को प्राप्त हो जाता है। [३६२-४०२] के ४. शोक-भाई प्रकर्ष ! यह जो तीसरा पुरुष दिखाई दे रहा है, उसे तो तुम पहचानते ही होगे ? हम जब तामसचित्त नगर में प्रवेश कर रहे थे तब हमें यह मिला था और चित्तवृत्ति अटवी की सब बात बताई थी यह वही शोक है । जो वापस लौटकर महामोह राजा की सेना में सम्मिलित हो गया है। किसी भी निमित्त को प्राप्त कर यह बहिरग प्रदेश के लोगों में दीनता उत्पन्न करता है, उन्हें रुलाता है और प्राक्रन्दन करवाता है। जो प्राणी अपने प्रियजनों से वियूक्त हो गये हैं, महाविपत्ति में पड़ गये हैं, और अनिष्टकारी तत्त्वों से सम्बद्ध हो गये हैं वे सब निश्चित रूप से इसी के वशवर्ती हो जाते हैं । उस समय उन बेचारों की यह ऐसी दुर्दशा कर देता है कि जैसे उनका भयंकर शत्रु हो । परन्तु, शोक के वशीभूत मूर्ख प्राणी इसे शत्रु नहीं समझ पाते । इसके निर्देशानुसार बेचारे जड़ प्राणी चिल्लाते हैं, रोते हैं और दुःखी होते हैं। रोते-चिल्लाते वे ऐसा समझते हैं कि यह शोक उन्हें दुःखों से छुड़ायगा, पर, यह भाई तो दुःख को घटाने के स्थान पर उसे अधिक बढा देता है। परिणाम स्वरूप प्राणी अपने स्वार्थ को तो सिद्ध नहीं कर पाते, किन्तु धर्म-भ्रष्ट होकर मोह में पड़कर कई बार शोक ही शोक में मूछित होकर आँखे बन्द कर लेते हैं और उनके प्राण तक निकल जाते हैं । शोक के वशीभूत प्राणी गाढ दुःखी होकर सिर फोड़ते हैं, बाल नोचते हैं, छाती कूटते हैं, जमीन पर पछाड़ खाते हैं, गले में रस्सो बाँधकर आत्महत्या करने लटक जाते हैं, नदी तालाब, कुवा, बावड़ी, समुद्र में कूदकर प्राण देते हैं, अग्नि में जल मरते हैं, पर्वत-शिखर से कूदकर (प्रात्महत्या) करते हैं, कालकूट आदि तीक्ष्ण विष भक्षण करते हैं, शस्त्र से अपने ही शरीर पर प्रहार करते हैं, प्रलाप करते हैं, पागल हो जाते हैं, विक्लव हो जाते हैं, दीन स्वर में बोलते हैं, घोर मानसिक सन्ताप से जलकर राख जैसे हो जाते हैं और शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादि के सुखों से वंचित * पृष्ठ ३७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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