________________
प्रस्ताव ४ : पाँच मनुष्य
५१५
हो जाते हैं । हे भद्र ! इस प्रकार शोक के वशीभूत प्राणी इस भव में अनेक प्रकार के प्रगाढ दुःख प्राप्त करते हैं और दुःखदायी कर्मों का बन्ध कर परभव में भी भयंकर दुर्गति को प्राप्त होते हैं । हे भैया ! यह शोक बाह्य प्रदेश के प्राणियों को बहुत प्रकार से दुःख देने वाला है जिसका मैंने तेरे सन्मुख संक्षेप में वर्णन किया है । हे वत्स ! इसके शरीर में भी इसकी पत्नी भवस्था नामक महादारुण स्त्री निवास करती है । शोक का संवर्धन करने वाली यह भवस्था ही है । इसके बिना शोक क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता, इसीलिये वह इसे सदा अपने शरीर में ही अभिन्न रूप से रखता है। [४०३-४१७
५. जुगुप्सा-प्रकर्ष ! यह जो चपटे नाक और काले रंग वाली स्त्री शोक के पास ही बैठी है, उसे विद्वान् प्राचार्य जुगुप्सा के नाम से जानते हैं । वस्तु स्वरूप को नहीं समझने वाले बाह्य प्रदेश के प्राणियों में विपरीत भाव उत्पन्न कर यह उनकी कैसी दुर्दशा करती है, सुनो । किसी के घाव में से जब खून और पीप निकल रही हो, कीड़े कुलबुला रहे हों, दुर्गन्ध उठ रही हो तब ऐसे दुर्गन्ध वाले प्राणी या वस्तु को देखकर स्वयं को अति पवित्र मानते हुए यह मूर्ख सिर धुनने लग जाता है, नाक चढ़ाकर, के प्रांखे बन्द कर, मुंह से थू थू करते हुए और कंधे उचकाते हुए भाग खड़ा होता है । पवित्रता के दिखावे के लिये कपड़ों सहित पानी में कूद पड़ता है, बार बार छींकता है और थूकता रहता है। उसके कपड़े का पल्ला किसी से छ जाय तो क्रोधित होकर बार-बार स्नान करता है और चाहता है कि अन्य की छाया का भी उसे स्पर्श न हो। ऐसे शौचवाद (छाछत) के कारण वेताल के समान सर्वदा त्रस्त होता रहता है। जुगुप्सा के वशीभूत प्राणी पहिले से ही उन्मत्त तो होते ही हैं, फिर ऐसे विचित्र विचारों से अधिक उन्मत्त बन जाते हैं और तत्त्वदर्शन-रहित होकर परभव में अज्ञानाभिभूत हो भयंकर संसार रूपी जेल में पड़ते हैं । भैया ! यह जुगप्सा भी बाह्य प्रदेश के प्राणियों को बहुत दुःख देने वाली है जिसका मैंने संक्षिप्त वर्णन किया है । [४१८-४२७]
१६. सोलह बालक पर्व प्रकरण में पाँच प्राणियों का वर्णन सुनने के पश्चात् जब प्रकर्ष ने सिंहासन के सामने १६ बालकों को धमा-चौकड़ी करते देखा तो उसने विमर्श से पूछा-मामा ! सामने राजा की गोदी में और नीचे खेलते हुए (६ बच्चे दिखाई पड़ रहे हैं। उनमें से कुछ का लाल रंग है और कुछ का काला । वे तूफानी बच्चे
* पृष्ठ ३७३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org