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________________ प्रस्तावना ४७ निपुणता, दोनों ही दर्शनीय बन पड़ी है। गुणों की दृष्टि से भी नाटक का विशेष महत्त्व है। ग्रन्थकर्ता यशपाल, राजा अभयदेव के मंत्री धनदेव और रुक्मिणी देवी के पुत्र थे। ये, जाति से मोड़ वैश्य थे। इसी से मिलता-जुलता एक और नाटक, मेरुतुगसूरि की 'प्रबंध-चिन्तामणि' के परिशिष्ट भाग में पाया जाता है । इसकी रचना, वैशाख शुक्ला पूणिमा, वि०सं० १३६१ को पूर्ण हुई थी । महाराजा कुमारपाल द्वारा, प्राचार्य हेमचन्द्र के निकट जैन श्रावक व्रत ग्रहण कर अहिंसा व्रत अङ्गीकार करने के दृश्य को लक्ष्य कर, इसकी रचना की गई। मोहराज-पराजय के दूसरे, तीसरे व चौथे प्रतों में वर्णित कथावस्तु से, प्रबंध-चिन्तामरिण की कथावस्तु में, कुछ बदले हुए नामों के अलावा, अधिक अन्तर प्रतीत नहीं होता। चौदहवीं शताब्दी की रचना 'संकल्पसूर्योदय' वेदान्तदेशिक की कृति है । इसमें दश अङ्क हैं। रूपककार ने, इसमें वेदान्त की विशिष्टाद्वैत शाखा के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इस नाटक के दूसरे अङ्क में आर्हत्, बौद्ध, सांख्य, अक्षपाद, सौत्रान्तिक, योगाचार, वैभाषिक, माध्यमिक आदि के मतों का खण्डन करके उनका उपहास भी उड़ाया गया है। तीर्थों के दोषों का उद्घाटन करके, उन्हें प्रयुक्त सिद्ध किया गया है । और, 'हृदयगुहा' को ही समाधि के लिये, नाटककार ने उपयुक्त बतलाया है। __श्री जयशेखरसूरि का 'प्रबोध-चिन्तामणि' भी रूपक शैली का महत्त्वपूर्ण प्रबन्ध है। इसकी कथावस्तु का आधार-भगवान पद्मनाभ के शिष्य धर्मरुचि द्वारा प्ररूपित आत्मस्वरूप का चित्रण है। इसकी रचना, स्तम्भनक नरेश की राजधानी में विक्रम सम्वत् १४६२ में की गई। इसके पहिले अधिकार में, परमात्मस्वरूप का चित्रण, और दूसरे में भगवान् पद्मनाभ का चरित्र, तथा मुनि धर्मरुचि का चरित्र वरिणत है। तीसरे अधिकार में मोह और विवेक की उत्पत्ति दिखला कर, मोह को राज्य प्राप्त कराया गया है। चौथे अधिकार में संयमश्री के साथ विवेक का पाणिग्रहण होने के बाद, उसकी राज्य-प्राप्ति का निरूपण किया गया है। पांचवें में, काम की दिग्विजय का वर्णन है। छठवें अधिकार में कलिकृत प्रभाव का १. प्रार० कृष्णामाचारी मदुरा द्वारा सम्पादित एवं एच० एम० बागुची द्वारा मेडिकल हॉल प्रेस, वाराणसी से प्रकाशित । २. प्रबोध-चिन्तामरिण-२/१० ३. यमरसभुवनमिताब्दे स्तम्भनकाधीशभूषिते नगरे । श्रीजयशेखरसूरि प्रबोधचिन्तामरिणमकार्षीत् ।। -प्रबोध-चिन्तामणि-प्रस्तावना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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