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________________ ४८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा निरूपण है । इसी प्रसङ्ग में, सामाजिक दुर्दशा का चित्रण, मार्मिक और यथार्थ रूप में किया गया है। इसी सन्दर्भ में, ग्रन्थकार की उक्ति-'भगवान् महावीर की सन्तान होने पर भी, आज के साधु, विभिन्न गच्छों में विभक्त हैं और पारस्परिक सौहार्द्र के बजाय वे एक-दूसरे के शत्रु बने हुये हैं, बहुत ही मर्मस्पर्शी है। जयशेखरसूरि की यह वेदना भरी टीस, आज तक, ज्यों की त्यों बरकरार है। प्रो० राजकुमार जैन ने, 'मदन-पराजय' (सं०) की प्रस्तावना में 'मयणजुज्झ' नामक अपभ्र श रचना को बुच्चराय की कृति बतला कर, उसकी रचना समाप्ति की तिथि-आश्विन शुक्ला प्रतिपदा शनिवार, हस्तनक्षत्र, वि. सं. १५८६, बतलाई है। श्री अगरचन्द नाहटा के सौजन्य से प्राप्त, इस रचना की पाण्डलिपि के लिखने की समाप्ति की तिथि–'सं० १७६७ वर्षे पौषमासे शुक्लपक्षे १२ तिथौ पं० दानधर्म लिखितं श्रीमरोट्टकोट्टमध्ये' के आधार पर प्रदर्शित की है। इस रचना में, भगवान् पुरुदेव द्वारा की गई मदन-पराजय का वर्णन है । यहाँ, यह उल्लेखनीय है कि प्रो० राजकुमार जैन ने, इसी प्रस्तावना में, 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' का उल्लेख करने के साथ-साथ, एक और 'मदनजुज्झ' अपभ्रंश रचना का उल्लेख किया है। जिसका रचनाकाल, उन्होंने वि० सं० ६३२ लिखा है । किन्तु, उसके रचनाकार का नाम उन्होंने निर्दिष्ट नहीं किया। यह विचारणीय है। पं० भूदेव शुक्ल का 'धर्मविजय' नाटक, रूपक साहित्य की एक भावपूर्ण लघु रचना है। इसमें पांच अङ्क हैं। जिनमें धर्म और अधर्म को नायक-प्रतिनायक बतला कर, उनके पारस्परिक युद्ध का वर्णन किया गया है । अन्त में, धर्म अपने परिवार के साथ मिलकर अधर्म का सपरिवार नाश करके, विजय प्राप्त करता है। पं० श्रीनारायण शास्त्री ख्रिस्ते का अनुमान है कि इस नाटक की रचना १६वीं शताब्दी में हुई, और भूदेव शुक्ल, सम्राट अकबर के समकालीन रहे । नाटककार ने, समसामयिक सामाजिक परिस्थितियों को बड़ी कुशलता से प्रतिबिम्बित किया है। उस समय, विभिन्न प्रदेशों में व्यभिचार, दुराचार, झूठ, हिंसा, चोरी जैसी अमानवीय वृत्तियों का भयङ्कर प्रचार था। जगह-जगह घूतक्रीड़ायें होती थीं, खुले आम मद्यपान होता था। वैभवमयी अट्टालिकाओं के प्रांगण १. एकश्रीवीरमूलत्वात् सौहृदस्योचितैरपि । सापल्यं धारितं तेन पृथग्गच्छीयसाधुभिः ।। ---प्रबोध-चिन्तामणि-६/८६ श्री नारायण शास्त्री खिस्ते द्वारा सम्पादित, "प्रिंस ऑफ वेल्स'-सरस्वती भवन सीरीज, बनारस से प्रकाशित-१९३० ई० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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