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________________ प्रस्ताव ४ : महामूढता, मिथ्यादर्शन, कुदृष्टि कार्य करते हैं और धर्म की उपेक्षा करते रहते हैं । ऐसे साधुओं को यह मिथ्यादर्शन गुणवान बतलाता है उन्हें धीर-वीर, पूज्य, मनस्वी, और सच्चे लाभ देने वाला बतलाता है और कहता है कि मुनियों में (साधुनों में) वे ही सर्वोत्तम हैं। इस प्रकार यह मिथ्यादर्शन अपनी शक्ति के प्रभाव से ऐसे लोगों को बाह्यजनों की दृष्टि में सर्वमान्य बताता है। जब कि अन्य साधु जिन्हें मंत्र-तंत्र आदि विद्यायें यद्यपि अच्छी तरह से ज्ञात होती हैं फिर भी जो निःस्पृह रह कर ऐसो लोकैषणा से निवृत्त (दूर) रहते हैं, लोकयात्रा से विरक्त रहते हैं, धर्म-मर्यादा का अतिक्रमण न हो जाय ऐसा भय उनके हृदय में समाया रहता है अर्थात् धर्मभीरु होते हैं, अन्य जनों की दोषपूर्ण बातों के लिये ये मूक और अन्ध होते हैं, स्वात्मिक गुणों के विकास में प्रयत्नशील रहते हैं, अपने शरीर पर भी प्रासक्ति नहीं रखते, फिर धन स्त्री आदि पर-पदार्थों को रखने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, जो क्रोध, अहंकार और लोभ का तो दूर से ही त्याग कर देते हैं, जिनके सभी बाह्य व्यवहार शान्त हो गये हैं, जिन्हें अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रहती, जो तप को सच्चा आत्म-धन मानते हैं, लब्धि का उपयोग नहीं करते, जादू मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग नहीं करते. निमित्त नहीं बताते, जो लोगों के समस्त बाह्य उपचारों का सुखपूर्वक त्याग करते हैं * और निरन्तर स्वाध्याय ध्यान अभ्यास और योग क्रिया में अपने मन को तल्लीन रखते हैं। ऐसे विशिष्ट महात्मा साधु पुरुषों को यह मिथ्यादर्शन गुण रहित, लोक-व्यवहार विमुख, मूर्ख, सुखोपभोग वञ्चित. अपमानित, गरीब, दीन-हीन, ज्ञान रहित और श्वान जैसा कहकर उनकी हंसी उड़ाता है । इस प्रकार मिथ्यादर्शन अपनी शक्ति से बाह्यजनों की बुद्धि में साधु पुरुषों को असाधु और असाधु को साधु रूप में प्रतिष्ठित करने में आनन्द मानता है। [२०३-२१६] प्रकरणीय को करणीय और करणीय को अकरणीय कन्याओं के लग्न, पुत्रोत्पत्ति, शत्रुनाश, कुटुम्ब परिपालन आदि घोर संसार-वृद्धि के कामों को मिथ्यादर्शन विशुद्ध धर्म प्रतिपादित करता है और संसार समुद्र को पार करने का कारण बताता है । जब कि यह लोकशत्रु ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रयी से युक्त मुक्ति के मार्ग का सर्वथा लोप करता है। [२१७-२१६] भाई प्रकर्ष ! इस प्रकार अद्भुत शक्ति-सम्पन्न यह जड़ात्मा सेनापति मिथ्यादर्शन अदेव में देव, अधर्म में धर्म, अतत्त्व में तत्त्व, अगुरु में गुरु, प्रसाधु में साधु, अपात्र में पात्र, गुणरहित को गुणवान और संसार-वृद्धि के कारणों को मोक्ष का कारण बताने की भ्रान्ति उत्पन्न करता है । मैंने अपनी विचारणा शक्ति के अनुसार इन सब का संक्षिप्त विवेचन किया, किन्तु इसके पराक्रम का समग्र रूप से विस्तृत वर्णन करने में तो कौन समर्थ हो सकता है ? [२२०-२२३] * पृष्ठ ३६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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