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________________ ५०२ उपमिति भव-प्रपंच कथा मिथ्यादर्शन द्वारा मण्डपादि का निर्मारण भैया ! यह महामोह राजा का सेनापति मिथ्यादर्शन स्वभाव से ही बहुत अभिमानी है, मदोद्धत है और अपने मन में ऐसा समझता है कि सम्पूर्ण राज्य का भार उसी पर है । अपने को समस्त राज्य का नायक मानकर ही वह कार्य करता है । वह मानता है कि महाराजा का उस पर पूर्ण विश्वास है इसलिये उसे अन्य कार्यों को छोड़कर सदा उनके हित में ही प्रवृत्ति करनी चाहिये। इसी के फलस्वरूप वह अपना कर्त्तव्य समझ कर चित्तविक्षेप मण्डप की रचना करता है, उस पर तृष्णा वेदिका ( मञ्च) का निर्माण कर विपर्यास सिंहासन की स्थापना करता है । इस प्रकार की योजनायें बनाकर वह बाह्य लोक में क्या परिणाम उत्पन्न करता है ? इस विषय में अब मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम ध्यान पूर्वक सुनो। [ २२४-२२८] चित्तविक्षेप मण्डप का रहस्य भद्र ! बेचारा प्राणी पागल, शराबी, और भूतग्रस्त मनुष्य की तरह धर्मबुद्धि से व्यर्थ ही इधर-उधर भटकता रहता है । ऐसे विचित्र परिणाम वह कैसे उत्पन्न करता है यह भी तुम समझ लो । प्रारणी धर्म मान कर महातीर्थों में भैरवजव (आत्मघात) करता है, महापंथ (हिमालय) के उत्तर में माने हुए (स्वर्गपथ) पर जाता है, माघ मास की ठण्ड में पानी में खड़े रह कर सर्दी से मरता है, पंचाग्नि तपकर तीव्र अग्नि के ताप से शरीर को जलाता है, गौ, पीपल आदि को नमस्कार करके सिर फोड़ता है, कुमारी कन्या और ब्राह्मण को सीमातीत दान देकर निर्धन बनता है, स्वयं को श्रद्धावान और पाप से पवित्र मानकर अनेक दुःख सहन करता है, तीर्थों की यात्रा करने को अभिलाषा से घर, धन और कुटुम्ब को छोड़कर अनेक दुःख सहन करते हुए परदेश में जहाँ-तहाँ भटकता रहता है, मृत पित्रों के तर्पण के लिये और देवों के श्राराधन हेतु यज्ञ में पशुबली देकर जोव हिंसा और धन का अपव्यय करता है, भक्ति में पागल बनकर तप्त लोहपिण्ड के समान क्रोधमूर्ति गुरुयों को मांस-मद्य खिला-पिलाकर और धन तथा खाद्य वस्तुएं देकर प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है । यह सब वह ( सच्चा) धर्म मानकर धर्मबुद्धि से ही करता है, इसीलिये विवेकशील पुरुषों की दृष्टि में हंसी का पात्र बनता है । धर्म के झूठे विचार से उसकी बुद्धि इतनी अधिक शून्य (कुण्ठित) हो जाती है कि जिससे उसकी समझ में ही नहीं आता कि वह ऐसे कार्यों से व्यर्थ में प्राणियों का नाश कर दारुण पापों का उपार्जन कर रहा है, स्वयं का भविष्य अन्धकारमय बना रहा है और धन का व्यय करके भी हास्य पात्र बनता जा रहा है । तत्त्वमार्ग से बहिष्कृत लोग राग द्वेष से उत्पन्न स्वकीय पापों की विशुद्धि के लिये ऐसी अनेक प्रकार की क्रियाएं करते हैं । इसके फलस्वरूप धर्म के सत्य स्वरूप को न जानकर अनेक जीवों का मर्दन करते हैं और हाथी के बच्चे की एवज में गधे को बांधते हैं (धर्म समझ कर धर्म करते हैं) । तेरे पृष्ठ ३६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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