SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 603
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६० उपमिति-भव-प्रपंच कथा के कुसंसर्गों से झूठी संकल्प-विकल्प-मालाओं से ग्रस्त होकर इसी को सुख मान बैठता है तब वह उसे प्राप्त करने के लिये अनेक प्रकार के विलास, नाच, संगीत, हास्य, नाटक आदि के झठे आनन्द में डूब जाता है और दुर्लालसाओं के वशीभूत होकर जुना खेलने, शराब पीने, स्त्रियों के साथ सभोग करने प्रादि अधम कार्यों में रस लेने लगता है; जिससे वह सन्मार्ग रूपी नगर से दूर होकर दुःशील रूपी (बुरे मार्ग) उद्यान में आता है। हे नीलकमल नयने ! कथा में कुमार के उल्लास पूर्वक नगर से निकलकर उद्यान में आने का भावार्थ यही है । अर्थात् सन्मार्ग-भ्रष्ट होकर दुश्चरित्री हो जाता है और इसका कारण है प्रारम्भ-समारम्भ से प्राप्त धन के उपभोग करने की तुच्छवासना । उद्यान में प्राकर कुमार जिस दिव्य विशाल आसन पर बैठता है उसे मिथ्याभिनिवेश प्रासन समझ । फिर कर्म के पारिवारिकजनों द्वारा कुमार के सामने भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्ताकर्षक एवं स्वादिष्ट भोजन परोसे गये, जिनको वह पहले चख चुका है, इसीलिये उनके प्रति लोलुपता की दृष्टि से देखता है । हे पद्मलोचने ! यह भोजन सामग्री ही प्रमतत्ता नदी के मध्य में स्थित तद्विलसित द्वीप के समान है। [-३-६६] चित्तविक्षेप मण्डप का उपनय हे भद्रे ! वेल्लहल कुमार द्वारा फिर थोड़ा सा भोजन करने से और जंगल के शीतल पवन से उसका ज्वर तीव्रता से बढ़ गया । वैद्यपूत्र ने इसे लक्ष्य किया और उसे भोजन करने से रोका परन्तु कुमार भोजन के प्रति इतना आकर्षित था कि उसने वैद्यपुत्र की बात सुनी ही नहीं। इसी प्रकार प्राणी को कर्म के अजीर्ण से मानसिक सन्ताप ज्वर तो पहले से ही होता है। फिर मदिरा, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा रूपी प्रमाद में पड़ने से और अज्ञान रूपी वायु के स्पर्श से उसका ज्वर बढ़ जाता है। प्राणी के इस कर्म-ज्वर की वृद्धि को समयज्ञ (शास्त्र के जानकार) वैद्य जैसे बुद्धिशाली धर्माचार्य समझते हैं और उसे अधिक प्रमाद में पड़ने से रोकते हैं तथा उसे वस्तु-स्वरूप को समझाते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि, 'भद्र ! इस अनादिकालीन संसार रूपी महा भयानक जंगल में भटकते-भटकते विशाल साम्राज्य की प्राप्ति के समान ही किसी सुन्दर कर्मों के सुयोग से तुम्हें यह मनुष्य भव प्राप्त हुआ है. फिर भी कर्म के अजीर्ण से उत्पन्न ज्वर से तुम पीड़ित हो, अतः तुम प्रमाद का सर्वथा त्याग कर दो। अन्यथा कर्मज्वर की व्याधि में यदि प्रमाद का सेवन करोगे तो तुम्हारा यह मानसिक ज्वर बढ़कर सन्निपात में बदल जायेगा, अर्थात् तुम्हें महामोह रूपी सन्निपात हो जायेगा। इस मानसिक ज्वर को मिटाने की अमोघ औषधि सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन, और सम्यक् चारित्र है। यह औषधि सर्वज्ञ भगवान् ने बताई है । इसके वन से तुम्हारे चित्त पर चढ़े ज्वर का सर्वथा नाश होगा । अत: हे भद्र ! तुम इस औषधि का सेवन करो।' इत्यादि वचनों द्वारा धर्माचार्य प्राणी को विस्तृत उपदेश देते हैं, परन्तु इस पापी प्राणी के चित्त पर तो प्रमाद रूपी भोजन के प्रति इतनी अधिक पासक्ति होतो है कि वह इस शिक्षा को उपदेष्टा का वागजाल मात्र समझकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy