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________________ प्रस्ताव ४ : वेल्लहल कुमार कथा ४८६ लगता है और राग-द्वेष को स्वचित्त के समान ही समझता है। उसे सुन्दर स्त्रियों का स्पर्श प्रिय लगता है, रस अभीष्ट लगता है, गन्ध अच्छी लगती है, रूप आह्लादकारी लगता है और ध्वनि प्रियकारी लगती है। उसे चन्दन आदि का लेपन, ताम्बूलचर्वण, आभूषण-धारण, सुस्वादु भोजन, फूलमालाय, लावण्यवती स्त्रियों का संगम और बढ़िया कपड़े पहनना अच्छा लगता है । बढ़िया प्रासन, वाहन और पलंग आदि पदार्थों पर मन ललचाया करता है । द्रव्य-संचय और झूठे यश की बातें बहुत ही प्रिय लगती हैं। हे भद्रे ! प्राणी की चित्तवृत्ति रूपी अटवी में ऐसे कार्य करती हुई प्रमतत्ता (प्रमाद) रूपी नदी अति वेग से निरन्तर बहती रहती है। [४०-५२] हे सुन्दरि ! जैसे अजीर्ण और जीर्ण ज्वर से संतप्त दशा में भी वेल्लहल राजकुमार को उद्यान में गोठ करने की इच्छा हुई और एतदर्थ खाद्य सामग्री तैयार करवाई। उस भोज्य सामग्री में से चखने के बहाने से उसने थोड़ी-थोड़ी खाई। उसके बाद आमोद-प्रमोद पूर्वक परिवार सहित नगर से निकल कर बगीचे में आया। वहाँ दिव्य आसन पर स्वयं बैठा । भोजनार्थ नानाविध खाद्य सामग्री परोसी गई, इत्यादि वर्णन पहले विस्तृत रूप से कर चुके हैं । हे कमलनयनि ! वैसे ही प्रमाद में पड़े हुए प्राणी को कर्म के अजीर्ण से महा दारुण मानसिक संताप ज्वर के कारण उसके मन में प्रतिक्षण अनेक प्रकार के विचार उठते रहते हैं । जैसे-खूब धन कमाकर यथेच्छ सुख भोगू , अन्तःपुर को दिव्य वैभव-सम्पन्न कर दूं, मनोहारी राज्य का भोग करू, बड़ेबड़े राज महल बनवाऊं, सुन्दर उद्यान बनवाऊं, महावैभव सम्पन्न बनू, समस्त शत्रुओं का नाश करू, समस्त जन समूह से प्रशंसित होऊं और समस्त मनोरथों को पूर्ण करू । पाँचों इन्द्रियों के शब्दादि विषय रूपी सुख-सागर में अपने को डुबाकर (सराबोर होकर) निरन्तर आनन्द की मस्ती में रहूँ। खाना, पीना, भोग भोगना और इन्द्रियों की तृप्ति करना, यही तो मनुष्य भव प्राप्त करने का फल है। इसके अतिरिक्त मनुष्य भव-प्राप्ति का फल ही क्या है ? प्राणी की चित्तवृत्ति में ऐसी प्रमाद रूपी नदी निरन्तर बहती रहती हैं। हे सुन्दरि ! उसे वेल्लहल कुमार के उद्यान में जाकर गोठ करने की इच्छा के समान समझना चाहिये । देख, ऐसे विचारों के परिणाम स्वरूप ही प्राणी महारम्भ पाप करता हुअा द्रव्य-संचय (संग्रह) करता है । दैवयोग से यदि उसे धन की प्राप्ति हो जाती है तो वह अपनी इच्छानुसार अन्तःपुर और भवन निर्माण से लेकर पूर्वोक्त पाँचों इन्द्रियों के विषयोपभोग पर्यन्त आनन्द सुख का स्वाद भी लेता है, जिसे वह सुख मानता है। [५३-६२] तद्विलसित द्वोप को योजना हे मृगलोचनि ! कथा में कहा गया है कि गोठ के लिये तैयार भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन में से उसने थोड़ा-थोड़ा चखा, यह महारम्भ से धन-प्राप्ति होने पर पांचों इन्द्रियों के रसों का स्वाद लेने के समान है। . जब यह प्राणी अनेक प्रकार ॐ पृष्ठ ३५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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