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________________ ४८८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा तब तक ही तृष्णा महानदो आदि वस्तुएँ निर्मित, विकसित और अधिकाधिक बढ़ती जातो हैं एवं जीव इनका निर्माण भी आवश्यक समझता है। (इस स्थिति में प्राणी अपनी आत्मा का शत्रु हो जाता है और उसे समझ में ही नहीं आता कि वह कैसो भूल कर रहा है या कैसे विपरीत मार्ग पर चल रहा है ।) ऐसी विषम स्थिति में प्राणी आत्म-शत्रु बनकर स्वयं की शक्ति से भिन्न-भिन्न प्रकार का कार्य और आचरगण करता है । इस तथ्य को समझाने के लिये ही वेल्लहल की कथा कही गई है। उसका इस महा अटवी और महानदी आदि से घनिष्ठ सम्बन्ध है, उसके भेद को समझाने के लिये अब मैं भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रस्तुत अर्थ के साथ योजित (घटित) कर प्रकट करती हूँ। [३१-३६] अजीर्ण : प्रमाद नदी : उद्यान-गमन का उपनय । जैसे इस वेल्लहल कुमार को आहार-प्रिय (अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थों को बार-बार खाने की इच्छा वाला) कहा गया है वैसे ही इस विषय-लम्पट जीव को समझना, जिसे विषय-भोग की कामनाएँ सर्वदा पुनः-पुनः होती रहती हैं। जैसे पुन:-पुन: अधिक भोजन करने से वेल्लहल कुमार को अजीर्ण रोग हो गया था वैसे ही हरिणाक्षि ! इस जीव को बार-बार कर्म का अजीर्ण हो जाता है । यह कर्म पाप और अज्ञानमय होने से बहुत दारुण है, जिसमें से (प्रमाद) रूपी पुलिन (नदीतट द्वीप) उत्पन्न होता है, अर्थात् इस प्रमाद को उत्पन्न करने वाले तामसचित्त और राजसचित्त (नगर) हैं। जैसे-जैसे कुमार को भोजन करने से अधिकाधिक अजीर्ण होता गया और उसके जीर्ण ज्वर में वृद्धि होती गई वैसे ही प्राणी की विषय-लम्पटता बढ़ने से उसके रागादि (प्रासक्ति) दोषों में वृद्धि होती है जो जीर्ण ज्वर के समान समस्त प्रकार के मानसिक और शारीरिक रोगों को बढ़ाती रहती है। ऐसे असाध्य अजीर्ण और जीर्ण ज्वर में भी जैसे वेल्लहल कुमार को भोजन करने की इच्छा होती रहती थी वैसे ही इस भाग्यहीन प्राणी को प्रति समय विषयभोग की कामना बनी रहती है। * मनुष्यभव प्राप्त जीव को देखेंगे तो प्रतीत होगा कि इसे कर्म का अत्यन्त दारुण अजोर्ण हो रहा है, उसके कुपित राग-द्वेष इतने वधित दिखाई देंगे कि उसके मूर्खता पूर्ण व्यवहार को देखकर आपको ऐसा लगेगा कि इसके चित्त पर ताप आ गया है, मानसिक संताप हो गया है। प्राणी वस्तु-स्वरूप को बराबर नहीं समझने के कारण वह समझ ही नहीं पाता कि रागद्वष के बढ़ने से उसका ज्वर (मानसिक संताप) बढ़ता जा रहा है, अत: वह सुखप्राप्ति की इच्छा से ऐसे अहितकारी विपरीत मार्ग पर चल पड़ता है । (इससे वह अपना अहित करता है और परिणाम स्वरूप उसे दारुण दुःख प्राप्त होता है ।) सुखप्राप्ति के लिये वह दुरात्मा जीव शराब पीता है, उसे निद्रा सुखकारी लगती है, अनेक ऊंची उड़ानों से भरपूर कल्पनाजन्य विकथा उसे सुन्दर लगती है। उसे क्रोध इष्ट लगता है, मान प्रिय लगता है, माया प्यारी लगती है, लोभ प्राणों के समान अभीष्ट * पृष्ठ ३५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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