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________________ प्रस्ताव ४ : वेल्लहल कुमार कथा संसारी जीव सदागम के समक्ष अपनी आत्मकथा सुनाते-सुनाते थक गया था और वह थोड़ा विश्राम करना चाहता था इसलिये उसने प्रज्ञाविशाला से कहाभद्र प्रज्ञाविशाला ! मैंने अभी जो कथा कही है उसका सम्बन्ध पूर्व-वरित वस्तुनों के साथ कैसे घटित होता है, यह तू ही सक्षेप से अपने शब्दों में स्पष्ट करते हुए अगृहीता को समझा दे । [ २४-२५] प्रज्ञाशाला ने कहा- ठीक है, मैं भलीभांति समझाती हूँ। फिर वह बोली- भद्रे प्रगृहीत संकेता ! देख, बराबर ध्यान रखना, अब मैं उपरोक्त कथा को पूर्व- वर्णित वस्तुओं से योजित (घटित ) कर रही हूँ । [२६] ४८७ कथा-योजना : अर्थ - घटना विशालाक्षि ! वार्ता में वेल्लहल कुमार का उल्लेख किया है उसे यहाँ कर्मभार से भारी बना हुआ संसारी जीव समझना । भद्रे ! ऐसा जीव भुवनोदर (संसार) नगर में ही उत्पन्न होता है । इसे अनादि राजा और संस्थिति रानी का पुत्र कहा गया है उसे यहाँ कर्मबन्धन युक्त जीव ही समझना जो कि अनादि कालीन कर्मप्रवाह से अपनी संस्थिति के कारण संसार में भटकता है । इस संसारी प्रारणी के अनन्त प्रकार के रूप होते हैं, अतः उसे बहिरंग लोक कहा गया है और सामान्य रूप की अपेक्षा से उसे एक कहा गया है । सुन्दरि ! मनुष्य भव में आकर ही प्राणी समस्त कर्मों पर प्रभुता प्राप्त करने की स्थिति में आता है इसलिये उसे महाराजपुत्र कहा गया है, क्योंकि राजकुमार ही सब का स्वामी बन सकता है । [२७-३०] चितवृत्ति टवी की योजना Jain Education International --- चितवृत्ति अटवी को संसारी जीव की मनोवृत्ति समझना । प्राणी का अच्छा-बुरा जो कुछ भी होता है वह सब इसी मनोवृत्ति के काररण होता है । जब तक प्राणी प्रात्म-स्वरूप को सम्यक्तया नहीं पहचानता तभी तक उसकी चितवृत्ति पर महामोह और उसका सेनापति द्वन्द्व मचाता रहता है और मानसिक अटवी को उथल-पुथल करता है तथा युद्ध चलता रहता है । परन्तु, जैसे ही प्राणी आत्मा को पहचान लेता है वैसे ही वे महामोहादि आत्मा के अनन्त बल-वीर्य को देखकर दूर से ही भाग खड़े होते हैं । जब तक प्राणी में आत्मिक बल प्रकट नहीं होता तभी तक उसकी चितवृत्ति में महामोह का संघर्ष चलता रहता है और उस मनोवृत्ति में तृष्णा नदी आदि का निर्माण होता रहता है; क्योंकि महामोह और उसके सेनापतियों के क्रीडा करने के लिये यह महानदी क्रीडा-स्थली है । परन्तु, जब इन सेनानियों को चितवृत्ति के संघर्ष -स्थल में आने की ही आवश्यकता नहीं होती तब इन सब वस्तुओं का अपने आप ही नाश हो जाता है । भद्रे ! जब तक प्राणी अपने श्रात्म-स्वरूप को सम्यक् रीति से नहीं समझता तब तक ही महामोह राजा और उसके सेनानियों का चितवृत्ति पर पूर्णरूप से श्राधिपत्य रहता है और वह विकसित होती रहती है, तथा पृष्ठ ३५२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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