SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा को अधिक जागृत कर उन्हें बढ़ा पेगा । आप जैसे विद्वान् को तो बाह्य पुद्गलमय इस तुच्छ भोजन पर आसक्ति होनी ही नहीं चाहिये । प्रभो ! आप इसका त्याग कर अपने आपकी रक्षा करने का प्रयत्न करें। [४-८] समयज्ञ द्वारा विनयपूर्वक इतना समझाने और रोकने पर भी वेल्लहल तो अपनी विपरीत मति पर डटा ही रहा । वह सोचने लगा कि, अहो ! यह वैद्यपुत्र तो मूर्ख ही लगता है, समय का ज्ञाता नहीं लगता है । यह न तो मेरी प्रकृति को ही समझता है, न मेरी अवस्था को ही जानता है और मेरे हित-अहित को भी ठीक से नहीं समझता है तब भी यह मुझे सीख देने चला है। मेरे शरीर में वायु बढ़ गई है जिससे मुझे तो भूख लग रही है और यह मुझे खाने से रोक रहा है। देवताओं को भी दुर्लभ ऐसे सुन्दर सुस्वादु भोजन को यह दोषपूर्ण बता रहा है । धन्य है इसकी बुद्धि को ! ऐसा बुद्धिहीन व्यक्ति कुछ भी बोले, मुझे उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । मैं तो यह भोजन इच्छानुसार अवश्य ही करूगा । मुझे तो अपना स्वार्थ सिद्ध करना है, अन्य से क्या लेना देना? [6-१२। वैद्यपुत्र, अन्य मित्रों और परिवारजनों के बारम्बार मना करने पर भी कुमार नहीं माना और उसने वह वमन मिश्रित भोजन किया ही । परिणाम स्वरूप उसके शरीर में एकाएक सभी दोष प्रबलता से बढ़ गये और उसे अत्यन्त तीव्र सन्निपात हो गया। फिर उसे उल्टी हुई और वह अचेत होकर उस उल्टी से भरी हुई घृणा योग्य जमीन पर ही काष्ठ के समान निश्चेष्ट होकर गिर पड़ा। उल्टो के कीचड़ में लोटने लगा। उसका गला कफ से भर जाने के कारण उसके कण्ठ से धर-घर की की भारी आवाज निकलने लगो। लोग देखते रहे और वह अत्यन्त उद्वेग उत्पन्न करने वाली और असाध्य चिकित्सा वाली दारुण अवस्था को प्राप्त हो गया । वह उस समय ऐसी विषम स्थिति को पहुँच गया था कि समयज्ञ भी उसे अब इस अवस्था से नहीं बचा सकता था तथा उसके परिवार-जन और नौकर भी अब उसकी रक्षा नहीं कर सकते थे । राज्य भी अब उसे इस अवस्था से बाहर निकालने में असमर्थ था और देव दानव भी इसको बचा नहीं सकते थे । यह प्राणी अब अपने कर्म के फल भोगते हुए अत्यन्त अपवित्र कीचड़ से भरी इस अवस्था में अनन्त काल तक इसी तरह लुढकता रहेगा। [१३-१६] हे अगृहोतसंकेता ! महानदी आदि वस्तुओं का भेद तुझे स्पष्टता से समझाने के लिये यह वेल्लहल की कथा सुनाई गई । अब कुछ समझी ? - इस कथा को सुनकर अगृहीतसंकेता तो अधिक विह्वल होकर असमञ्जस में पड़ गई । वह बोली ---अरे संसारी जीव ! तू ने तो चित्तवृत्ति अटवी और वहाँ की अन्य वस्तुओं में भेद दर्शाने के लिये यह कथा कही थी। पर, मुझे तो इस कथा में पूर्वापर सम्बन्ध वाली कोई बात ही दिखाई नहीं देती। यह तो “ऊंठ और उसकी आरती" वाली कहावत चरितार्थ हुई । यदि तेरी इस कथा में और पूर्व-वरिणत महानदी आदि में कुछ सम्बन्ध हो तो मुझे स्पष्ट रूप से समझा दे। [२०-२३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy