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________________ प्रस्ताव ४ : वेल्लहल कुमार कथा ४९१ स्वीकार नहीं करता है । अपितु, इसके विपरीत वह उन्मत्त के समान, मदिरापीत मत्त के समान, ग्राह ‘मगरमच्छ) ग्रस्त मृत्यु की पीड़ा के समान और गाढ निद्रा की बेहोशी में पड़े हुए के समान उद्भ्रान्त होकर, धर्माचार्य के उपदेश को अनसुना कर उससे विपरीत पाचरण करता है । हे भद्रे ! संसारी प्राणी के इसी आचरण को महानदी के पुलिन तद्विलसित द्वीप के मध्य बने चित्तविक्षेप मण्डप के समान समझना चाहिये । ऐसी ये घटनायें संसारी जीव के सम्बन्ध में बारम्बार घटती ही रहती हैं। [७०-७६] तृष्णा वेदिका की संघटना हे चारुलोचना अगृहीतसंकेता ! वेल्लहल को अजीर्ण और ज्वर के कारण भोजन गले से नीचे नहीं उतर रहा था फिर भी वह भोज्य पदार्थों के प्रति लोलुपता के कारण जबरदस्ती खा रहा था । फलस्वरूप उसने उसी भोजन के ऊपर ही उल्टी की। ठीक ऐसी ही घटना संसारी प्राणी के साथ भी घटित होती है। प्राणी कर्म के अजीर्ण से उत्पन्न जीर्ण ज्वर से ग्रस्त रहता है जिससे उसका मन सदा विह्वल रहता है और इधर वृद्धावस्था के कारण शरीर का खून और मांस सूख जाता है जिससे शरीर क्षीण हो जाता है और उसका क्षीण शरीर अनेक प्रकार के रोगों का घर बन जाता है । ऐसी अवस्था में किसी भी प्रकार के भोग भोगने का उसमें सामर्थ्य नहीं रहता, फिर भी उसकी इच्छा अधिकाधिक भोग भोगने की ही बनी रहती है, परन्तु इसके विपरीत उसके मन में तनिक भी भोग-त्याग की बुद्धि जाग्रत नहीं होती। ऐसी स्थिति में भी वह प्रमाद-भोजन के प्रति लोलुपता होने के कारण विवेकीजनों निषिद्ध द्वारा करने पर भी वह उनकी बात नहीं सुनता । प्राणी को सौ की प्राप्ति होने पर हजार की इच्छा होती है और हजार मिलने पर लाख को, करोड़ की, करोड़ की प्राप्ति होने पर राज्य प्राप्ति की, राज्य मिलने पर देव बनने की और फिर इन्द्र बनने की इच्छा करता है । श केन्द्र बन जाने पर भी उसकी इच्छा पूर्ति नहीं होती। चाहे जितने पुत्र हों, सुन्दर सद्गुणी स्त्रियाँ हो, सर्व प्रकार की इच्छित वस्तुएं हों, करोड़ों की सम्पत्ति हो, विविध प्रकार के भोग पदार्थ हो, फिर भी कुछ विशेष प्राप्त करने की उसकी अभिलाषा का कभी अन्त नहीं पाता । जैसे-जैसे अधिकाधिक स्थूल पदार्थ मिलते जाते हैं वैसे-वैसे उनसे अधिक सुख प्राप्त करने की कामना से वह उन सब का संग्रह करता जाता है । जैसे ज्वर-ग्रस्त मनुष्य के अपथ्यकारी अधिक भोजन करने पर उसके ज्वर में वृद्धि होत है वैसे ही स्थूल पदार्थों के संग्रह से प्राणी के दुःखों की ही वृद्धि होती है । अधिक सुख प्राप्त करने की उसकी इच्छा तो इच्छामात्र ही रह जाती है, अपितु बाढ़ आदि के उपद्रव, अग्नि के उपद्रव, सम्बन्धियों के झगड़े, चोरों के उपद्रव और राज्य सत्ता द्वारा द्रव्य रूपी भोजन का जबरदस्ती वमन (हरण) करवाना आदि उपद्रवों से होने वाले उन पदार्थों के वियोग से उसके हृदय * पृष्ठ ३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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