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प्रस्तावना
सामर्थ्य और पूर्ववर्ती आगमों की रूपकात्मक विधा को ग्रंथकार ने, अपनी रचना की सर्जना में बीज-बिन्दु स्वीकार किया है।
ग्यारहवीं शताब्दी के मध्यभाग में श्रीकृष्ण मिश्र द्वारा लिखित 'प्रबोधचन्द्रोदय' नाटक, अमूर्त का मूर्त विधान करने वाली लाक्षणिक शैली का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस नाटक में ज्ञान विवेक, विद्या, बुद्धि, मोह, दम्भ, श्रद्धा, भक्ति और उपनिषद् जैसे अमूर्त भावों की भी पुरुष-स्त्री पात्रों के रूप में अवतारणा की है। नाटक का मूल प्रतिपाद्य आध्यात्मिक अद्वैतवाद का प्रतिपादन है।
चेदि के राजा कर्ण (१०४२ ई. में जीवित) ने, कीर्तिवर्मा को परास्त किया था। परन्तु, उसके एक सेनानी गोपाल ने अपने बाहुबल से उसे हराने में सफलता प्राप्त कर ली थी। तब, इसने कीर्तिवर्मा को पुनः सिंहासनस्थ कर दिया था। इसी गोपाल की प्रेरणा से, कीर्तिवर्मा के समक्ष, यह नाटक अभिनीत हुआ था। कीतिवर्मा, जेजाक भुक्ति चंदेलवंशीय राजा था। चन्देलों की कला-प्रियता के प्रतीक हैं-खजुराहो के शैव मन्दिर । सम्भव है, यहाँ चन्देलों की राजधानी रही हो। कीर्तिवर्मा के पूर्वज राजा धङ्ग का शिलालेख १००२ ई., खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर में मिलता है।
__कीर्तिवर्मा, चन्देल वंश का एक प्रतापी और पराक्रमी राजा था। इसके अनेकों शिलालेख, बुन्देलखण्ड के विभिन्न स्थानों पर प्राप्त होते हैं। महोबा के निकट 'कीर्तिसागर' नाम का तालाब इसी के द्वारा बनवाया हुआ है । देवगढ़ में भी इसका एक शिलालेख (ई. १०६३) मिलता है। खजुराहो के लक्ष्मीनाथ मंदिर का एक शिलालेख (११६१ ई.) कीर्तिवर्मा के ही समय का है। जिसे इसके मंत्री वत्सराज ने खुदवाया था। कीर्तिवर्मा राजा विजयपाल का पुत्र था और अपने अग्रज देववर्मा के पश्चात् सिंहासनारूढ हुआ था। इसका राज्य, पर्याप्त विस्तृत भू-भाग पर बहुत वर्षों तक रहा। इन तमाम साक्ष्यों के बल पर कीर्तिवर्मा का काल ग्यारहवीं शताब्दी (ई.) का ठहरता है। यही समय, प्रबोध-चन्द्रोदय का रचना काल है।
१. अत्रात्मचेतनादीनां यत् दाम्पत्यादिशब्दनम् ।
तत्सर्वं कल्पनामूलं सापि श्रेयस्करी क्वचित् ॥ ४७ ॥ मीनमैनिकयोः पाण्डुपत्रपल्लवयोरपि । या मिथ: संकथा सूत्रे बद्धा सा किं न बोधये ।। ४८ ।। नायकत्वं कषायाणां कर्मणां रिपुसन्यताम् । आदिशन्नागमोऽप्यस्य प्रबन्धस्येति बीजताम् ।। ४६ ।।
-प्रथम-अधिकार-४७-४६
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