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उपमिति भव-प्रपंच कथा
मनोहारी चैत्य-वृक्ष, प्रचण्ड झाँधी के वेग से गिरने जा रहा है । इसको प्राश्रय बनाकर रहने वाले पक्षी, शोकाकुल होकर कलरव कर रहे हैं ।'
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इस दृष्टान्त में, नमि को 'चैत्यवृक्ष', और मिथला के नागरिकों को 'पक्षिसमुदाय' रूप प्रतीकों में चित्रित किया गया है । इसी अध्ययन में, 'श्रद्धा' नगर, 'संवर' किला, 'क्षमा' - गढ़, 'गुप्ति' रूपी शतघ्नी ( तोपें या बन्दूकें ), 'पुरुषार्थ' रूपी धनुष, 'ईर्या' रूपी प्रत्यञ्चा, 'धैर्य' रूपी तूणीर, 'तपस्या' रूपी बारण, और 'कर्म' रूपी कवच जैसे विभिन्न रूपक/ प्रतीक उल्लिखित हैं । 1 इसी में, दुष्ट बैलों का रूपक भी द्रष्टव्य है ।" 'समराइच्च कहा ' ( हरिभद्रसूरि ) का ' मधुबिन्दु' दृष्टान्त तो विशुद्ध रूपक शैली में वरिणत है ।
ये सारे उदाहरण, रूपक साहित्य के बीज - बिन्दु माने जाते हैं । किन्तु, इस शैली की काव्य-परम्परा का सर्वप्रथम सूत्रपात करने का श्रेय मिलता है -- सिद्धर्षि को । इनकी 'उपमिति भव-प्रपञ्च कथा " को रूपक - साहित्य - परम्परा का सर्वप्रथम और अनुपम ग्रन्थ माना जा सकता है । उपमिति भव-प्रपञ्च कथा की प्रस्तावना में, डॉ० जैकोबी ने इसे भारतीय रूपक साहित्य की प्रथम रचना स्वीकार किया है । 2 इससे पहिले की अपभ्रंश रचना 'मदनजुज्भ' रूपकात्मक शैली की उपलब्ध है । किन्तु, उसमें अंकित उसके रचनाकाल वि० सं० १३२ के अनुरूप प्राचीनता के पोषण में, उसकी भाषा का अंतरंग परीक्षण हुए बिना, उसे प्रथम रूपक काव्य मानना, उचित न होगा ।
जयशेखरसूरि की रचना 'प्रबोधचिन्तामणि' में सारोपा और साध्यवसाना लक्षणा को प्रमुखता से समर्थन मिला है। साथ ही, कवि की स्वयं की कल्पना
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उत्तराध्ययन- अध्ययन ६ व १०
वही - अध्ययन- २७
सिद्धव्याख्यातुराख्यातुं महिमानं हि तस्य कः । समस्त्युपमितिर्नाम यस्यानुपमिति कथा ||
- प्रद्य ुम्नसूरिका - समरादित्य संक्षेप
I did not find some thing still more important; the great literary value of the U. Katha, and the fact that is the first allegorical work in Indian Literature.
सारोपा लक्षणा क्वापि क्वापि साध्यवसानिका ।
धौरेयतां प्रपद्यते ग्रन्थस्यास्य समर्थने ॥
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