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________________ ४७६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा रूप से वेगपूर्वक घिसटता हुआ संसार-समुद्र में डूब जाता है । ऐसे डूबे हुए का बचाव कहाँ ? जो प्राणी भयानक संसार-समुद्र में जाने की इच्छा रखते हैं उन्हें यह महानदी अत्यधिक प्रिय है, परन्तु जो प्राणी घोर संसार-सागर से भयभीत हैं वे तो इस नदी को छोड़कर इससे दूर ही दूर भागते रहते हैं । भद्र ! उक्त महानदी का गुरण और स्वरूप का वर्णन पूर्ण हुआ। [११-२०] तद्विलसित पुलिन (द्वीप) इस नदी के मध्य में जो यह द्वीप देख रहे हो इसे तद्विलसित द्वीप कहते हैं। अब इसका स्वरूप वर्णन करता हूँ, सुनो-भद्र ! इस द्वीप पर हास्य और विब्बोक (गर्व से अनादर) की रेत है। यह पुलिन विलास, नृत्य और संगीत रूपी हंस और सारस पक्षियों से भूषित है । स्नेहपाश रूपी आकाश से घिरा हुआ होने से यह धवल (सफेद) दिखाई दे रहा है ॐ और घर्घराहट के साथ वेग से आती निद्रा रूपी मदिरा से यह दुर्जन प्राणियों को मत्त कर देता है । मूर्ख जीवों की क्रीडा के लिये यह विशाल द्वीप रमणीय स्थान है, किन्तु विशुद्ध चरित्र वाले तत्त्व-रहस्य के जानकार विद्वान् प्राणी तो इस द्वीप को दूर से ही प्रणाम करते हैं. अर्थात् सर्वदा दूर ही रहते हैं । हे भद्र ! नदी-पुलिन का गुण-वर्णन पूर्ण हुआ । अब मैं महामण्डप और उसके नायक का वर्णन करता हूँ। [२१-२५] चित्तविक्षेप मण्डप इस द्वीप के मध्य में जो सभामण्डप बना हुआ है उसे विद्वान् लोग चित्तविक्षेप के नाम से जानते हैं । यह सर्व प्रकार के दोष-समूह का घर है, इसीलिये इसका ऐसा नाम रखा गया है । इस मण्डप में प्रवेश करते ही प्राणी अपने गुणों को पूर्णरूप से भूल जाता है और महापापों के साधनभूत अधम से अधम कार्य करने की ओर उसकी बुद्धि प्रवृत्त होती है। यहाँ जो महामोह आदि बड़े-बड़े भूपतिगण विराजमान दिखाई दे रहे हैं उन्हीं के कार्य के लिये विधाता ने इस मण्डप का निर्माण किया है । भद्र ! तुम देखोगे कि यद्यपि यह मण्डप राजाओं के लिये बना है तथापि कुछ-कुछ बाह्य नगर के लोग भी महामोह के वशीभूत होकर इसमें प्रवेश कर गये हैं। ये बहिरंग नगर के निवासी मण्डप में प्रविष्ट होने के पश्चात् मण्डप के दोष के कारण विभ्रम में पड़ जाते हैं, जिससे उन्हें अनेक प्रकार के संताप होते हैं, मन में उन्माद होता है और वे नियम-व्रत से भ्रष्ट हो जाते हैं। उनकी यह स्थिति इस मण्डप के कारण ही होती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। महामोह आदि राजा जब यहाँ आकर इस मण्डप को प्राप्त करते हैं तब स्वाभाविक रूप से उनका चित्त सन्तुष्ट और प्रमुदित होता है, किन्तु बाहर के लोग जब मोह के वशीभूत होकर इस मण्डप में प्रवेश करते हैं तब उनकी मानसिक स्थिति विकृत हो जाती है और वे दुःख-समुद्र में डूब जाते हैं। क्योंकि, यह मण्डप अपनी शक्ति से चित्त को अपूर्व शान्ति मौर * पृ. ३४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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