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________________ प्ररताव ४ : चित्तवृत्ति अटवी ४७५ चित्तवृत्ति महाटवी विमर्श ने क्रमश: सभी वस्तुओं का वर्णन प्रारम्भ किया भाई प्रकर्ष ! यह जो अति विस्तृत चित्तवृत्ति नामक महाटवी है, इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की अद्भुत घटनायें निरन्तर होती रहती हैं । यह जंगल श्रेष्ठ रत्नों की उत्पत्ति स्थान के रूप में जग-प्रसिद्ध है। इसी अटवी को अनेक प्रकार के उपद्रवकारी अनर्थ-पिशाचों की उत्पत्ति भूमि भो कहा गया है। अन्तरंग में रहने वाले सभी लोगों के नगर, ग्राम, पत्तन और स्थान इसी चित्तवृत्ति जंगल में हैं । यद्यपि ज्ञानी अपने ज्ञान चक्षु से देख कर किसी कारण से कभी-कभी बाह्य प्रदेश में भी उनके स्थान का निर्देश करते हैं तथापि परमार्थ से तो वे सब अन्तरंग व्यक्ति हमेशा इस महाअटवी में ही प्रतिष्ठित हैं, अर्थात् यहीं रहते हैं, ऐसा समझ । क्योंकि, अन्तरंग निवासियों का कोई भी स्थान इस चित्तवृत्ति महा अटवी के अतिरिक्त बाह्य प्रदेश के किसी भी स्थान पर नहीं हो सकता । भद्र ! अन्तरंग के कुछ लोगों को छोड़कर सभी अच्छे-बुरे व्यक्ति इस अटवी के अतिरिक्त कदापि कहीं और नहीं रहते । भद्र ! यदि इस महाटवी का प्रासेवन विपरीत (मिथ्यात्व) भाव से किया जाय तो यह प्राणी से महापाप करवा कर उसे इस महा भयंकर संसार-अरण्य में भटकाने वाली बन जाती है । भद्र ! यदि इसका आसेवन सम्यक् प्रकार (सम्यक्त्व) से किया जाय तो यह अनन्त आनन्दपूर्ण मोक्ष का कारण भी बन सकती है। इसका अधिक वर्णन क्या करू ? भद्र ! संक्षेप में कहूँ तो संसार की सभी अच्छी-बुरी घटनाओं का कारण यह महा अटवी ही है । [१-१०] प्रमत्तता महानदी भद्र ! यह जो चारों तरफ फैली हई अति विस्तृत महानदी तुम देख रहे हो इसको मनीषी गण प्रमत्तता महानदी कहते हैं । इस नदी के दोनों ओर के ऊँचे-ऊँचे किनारों को निद्रा कहते हैं और इसमें कषाय का पानी निरन्तर बहता रहता है। मद्य के स्वादवाली यह नदी राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, भक्त कथा आदि विकथाओं रूपी पानी के प्रवाहों का तो भण्डार ही है। इस नदी में विषय-वासनाओं की अति चंचल तरंगे सदा से व्याप्त हैं । विविध विकल्प रूपो मोटे मत्स्यों से यह नदी भरी हुई है। यदि कोई निबूद्धि प्राणी इस नदी के तट पर खड़ा रहे तो उसे आकर्षण पूर्वक खींचकर यह नदी अपने आवर्तजाल (भंवर) में फंसा देती है। जो मूढ प्राणी एक बार भी इस नदी के प्रवाह में पड़ गया तो वह फिर एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता, अर्थात् आत्मिक दृष्टि से तो वह मृतप्रायः ही हो जाता है। पहले तुमने रागकेसरी राजा का राजसचित्त नगर और द्वषगजेन्द्र राजा का तामसचित्त नगर देखा है। उन नगरों से निकल कर यह नदी इस अटवी में प्रवेश करती है और अन्त में घोर संसार-समुद्र में गिरती है । इसके भंवर-जाल में फंसा हा प्राणी निश्चित * पृष्ठ ३४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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