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________________ ४६६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा उन्नत स्तनों की गर्मी का स्मरण कर अपनी ठण्ड को भगाने के लिये शीघ्र स्वदेश लौट आते हैं। सूर्य का तेज कम हो जाने से वह लघुत्व को प्राप्त हुआ है, क्योंकि जो दक्षिण दिशा का अवलम्बन लेते हैं उन सब की यही गति होती है अथवा जो दक्षिणा की आशा के अवलम्बन पर जीते हैं वे सभी लघुता को प्राप्त होते हैं, जैसे दक्षिण दिशा को प्राप्त सूर्य तेजहीन होकर लघुता को प्राप्त होता है । [१] अपने प्रिय जन के विरह रूपी सर्प से नीचे पड़े हुए अर्थात् व्यथित और शिशिर के पवन से खण्डित के शरीर वाले अर्थात् अत्यधिक ठण्ड से थर-थर कम्पित लोग मानो पशु ही हों। उन्हें यह हेमन्त ऋतु पकाकर खा जाने की इच्छा से रात्रि में अग्नि से पचा रही हो ऐसा प्रतीत होता है । [१] राजसचित्त नगर इस प्रकार कुछ महीनों तक मामा-भाणजा विमर्श और प्रकर्ष बाह्य प्रदेश में घूमते रहे, पर उन्हें रसना के मूल के बारे में कुछ भी पता नहीं लगा। तब वे अन्तरंग प्रदेश में प्रविष्ट हुए और वहाँ भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रसना की मूलशुद्धि का पता लगाने के लिये घूमने लगे । घूमते हुए वे राजसचित्त नगर में जा पहुँचे ।। यह नगर बड़े जंगल जैसा लम्बा चौड़ा था। धन-धान्य से भरपूर घरों वाला होने पर भी अधिकांशतः जनशून्य था, अर्थात् थोड़ी सी ही आबादी थी । नगर में किसो-किसी स्थान पर घर की रक्षा करने वाला या चौकीदार दिखाई देता था। ऐसे नगर को उन दोनों ने देखकर विचार किया प्रकर्ष-मामा ! इस नगर में इतने कम लोग हैं कि यह शून्य (श्मशान) जैसा दिखाई दे रहा है, इसका क्या कारण है, यह नगर ऐसा क्यों हो गया ? विमर्श-यह पूरा नगर समृद्धि से परिपर्ण दिखाई दे रहा है । बड़े-बड़े भवन नजर आ रहे हैं, पर उनमें रहने वाले लोग बहत कम दिखाई दे रहे हैं, जिससे लगता है कि इस नगर में किसी प्रकार का उपद्रव नहीं है। मेरा अनुमान है कि इस नगर का राजा किसी प्रयोजन से बाहर गया है और उसके साथ उसका परिवार, सैन्य और राज्याधिकारी भी गये हैं। प्रकर्ष-- आपका अनुमान मुझे भी ठीक लग रहा है। विमर्श-भाई ! इसमें बड़ी बात क्या है ? जितनी भी वस्तुएँ दिखाई देती हैं उनका तत्त्व मैं जानता हूँ । इसलिये तुम्हें भविष्य में भी कभी कोई शंका हो तो उसके बारे में प्रसन्नता से मुझ से पूछ लिया करो। प्रकर्ष-मामा ! यदि ऐसा ही है तब तो एक बात अभी पूछता हूँ। देखिये, इस नगर का न तो राजा यहाँ है और न लोग ही दिखाई दे रहे हैं । सभी * पृष्ठ ३३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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