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प्रस्ताव ४ : विमर्श और प्रकर्ष
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लोगों की जिह्वा अब खारे और तीखे स्वाद का त्याग कर मिष्टान्न में अनुरक्त हो रही है । इससे लगता है कि जगत् के लोग शुद्ध ( सच्चे ) गुणों के पारखी हैं, चापलूसी उन्हें रुचिकर नहीं है ।
स्वच्छ निर्मल जल से परिपूर्ण सरोवर विकसित कमल रूपी नेत्रों से दिन को देख रहे हैं । आकाश भी लोकयात्रा की इच्छा से तारामण्डल और नक्षत्र रूपी नेत्रों से रात्रि में पृथ्वी का अवलोकन कर रहा है ।
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गोकुल प्रानन्दित हो रहे हैं अर्थात् गायों के झुण्ड आनन्द से हरी घास चर रहे हैं। मजदूर वर्ग भी ( धान की सुलभता से) हर्षित हो रहा है । कदम्ब वृक्ष पुष्पित हो रहे हैं । रात्रियाँ स्वच्छ और निर्मल हो रही हैं । इतना होने पर भी चक्रवाक पक्षी अभी भी व्यथित हो रहे हैं (क्योंकि उनका विरह काल अभी भी पूर्ण नहीं हुआ है) । सच है, जो प्रारणी जब जिस वस्तु के योग्य बनता है तभी उसे उस वस्तु की प्राप्ति होती है । [ १६ ]
विमर्श और प्रकर्ष बाह्य-सृष्टि में
विमर्श और प्रकर्ष ऐसी शरद् ऋतु में अत्यन्त मनोहर उद्यानों की शोभा को निहारते हुए, विकसित कमल खण्डों से विभूषित सरोवरों की छटा का निरीक्षण करते हुए, ग्रामों कस्बों और नगरों का अवलोकन करने से प्रमुदित होते, इन्द्र महत्सव को देखकर हर्षित होते, दीवाली महोत्सव देखकर सन्तुष्ट होते, कौमुदी महोत्सव को देखकर आह्लादित होते और अनेक मनुष्यों के हृदयों की परीक्षा करते हुए बाह्य प्रदेशों में खूब घूमे। जिस कार्य के लिये वे निकले थे उसकी सिद्धि के लिये उन दोनों ने सैकड़ों उपायों का अवलम्बन लिया, परन्तु वहाँ उन्हें रसना की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी । जब वे दोनों कार्य हेतु भूमण्डल में विचरण कर रहे थे तभी हेमन्त ऋतु का आगमन हो गया ।
हेमन्त ऋतु
इस समय में वस्त्र, तेल, कम्बल, रजाई और अग्नि मूल्यवान प्रतीत होते हैं । तिलक, लोध्र, कुन्द, मोगरा आदि अनेक प्रकार के पुष्पवन प्रफुल्लित होते हैं । शीतल पवन यात्रियों की दन्त वीरणा को बजाते हैं, अर्थात् पथिकों के दांत कटकटा रहे हैं, जलराशि अथवा चन्द्र किरण, महल को छत चन्दन और मोतियों की सुभगता ( उत्कृष्टता) का हरण हो रहा है । [ १ ]
हेमन्त ऋतु में दुर्जन मनुष्यों की संगति की भाँति दिन छोटे हो जाते हैं और सज्जनों की मित्रता के समान रात्रियाँ लम्बी हो जाती हैं । विशुद्ध ज्ञान के अर्जन की भाँति इस ऋतु में अनाज का संग्रह किया जाता है, काव्य पद्धति के समान मनोहर वेणियों की रचना की जाती है, लोगों के मुख सज्जनों के हृदय के समान स्नेह से परिपूर्ण हो जाते हैं । जैसे रणक्षेत्र में शत्रुसेना की ललकार को सुनकर योद्धा आटते हैं वैसे ही परदेश गये हुए यात्री अपनी पत्नियों की विस्तृत जांघों और
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