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________________ प्रस्ताव ४ : रसना और लोलता भी नमस्कार कर बोला-यद्यपि मेरे माता-पिता को विरह होगा इस विचार से मेरे मन में शान्ति (निवृत्ति) नहीं हो पातो । मामा के साथ मेरा सहचारित्व होने से मेरे अन्तःकरण में उनके प्रति प्रबल प्राकर्षण है। जन्म से ही मैं उनके साथ ही रहा हूँ, अतः उनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता । इसलिये आप मुझे भो अाज्ञा दें तो मैं भी मामा के साथ जाऊँ। पुत्रादि की प्रशंसा पुत्र के वचन सुनकर विचक्षण का हृदय पुत्र-स्नेह से उल्लसित हुआ। आनन्द के अश्रु-बिन्दुओं से उसकी आँखें एवं पलकें प्रार्द्र हो गईं और उसने अपने दाँये हाथ की अंगुली से पुत्र के मुखकमल को उठाकर चूम लिया। स्नेह से उसका सिर सूघा और बहुत अच्छा बेटे ! कहकर उसे अपनी गोद में बिठाया, तथा अपने पिता शुभोदय के सामने देख कर कहा--पिताजी ! आपने देखा, यह प्रकर्ष अभी छोटा बच्चा ही है पर इसका विनय, सम्भाषण की युक्ति पूर्ण पद्धति और इसकी वाणी में उभरता स्नेह ! उत्तर में शुभोदय ने कहा-वत्स ! इसमें नवीनता क्या है ? तेरे और बुद्धिदेवी के पुत्र का व्यवहार तो ऐसा होना ही चाहिये । किन्तु वत्स ! पुत्रवधू या पौत्र के सम्बन्ध में हमें गुणों की प्रशंसा विशेषतया तेरे सामने तो करनी ही नहीं चाहिये । कहा है कि प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्रबान्धवाः । भृतका: कर्मपर्यन्ते, नैव पुत्रा मृता: स्त्रियः ।। गुरु को स्तुति उनके समक्ष करनी चाहिये, मित्र और सगे सम्बन्धियों की स्तुति उनकी अनुपस्थिति में करनी चाहिये, काम समाप्त होने के पश्चात् नौकर को धन्यवाद देना चाहिये, पुत्र की प्रशंसा तो करनी ही नहीं चाहिये और स्त्री की प्रशंसा तो उसके मरने के बाद ही करनी चाहिये । फिर भी इस पुत्रवधू और पौत्र के विशिष्टतम महान् गुणों को देखकर मेरे से उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जाता । तेरी पत्नी बुद्धिदेवी पूर्णरूप से तेरे अनुरूप ही है । यह श्रेष्ठ मुखवाली पुत्रवधू बुद्धि तो चन्द्र की चन्द्रिका के समान रूपवती है, गुणों में बढोतरी करने वाली है, भाग्यशालिनी है, पति पर स्नेहपूरित हृदय वाली है, पटु है, सर्व कार्यकुशल है, बलसम्पादन कराने वाली है, गृहभार को वहन करने में सक्षम है, विशाल दृष्टि वाली होने पर भी सूक्ष्म दृष्टिवाली कहलाती है और सर्वांगसुन्दर होने पर भी जड़ात्माओं (मों) के मन में द्वष उत्पन्न करने वाली है । अथवा निर्मलमानस नगर के राजा मलक्षय और सुन्दरता देवी की जो पुत्री है उसका गुण वर्णन करने में तो कौन समर्थ हो सकता है ? अतः प्रकर्ष का वर्णन करने की भी अब क्या आवश्यकता है ? अपनी माता बुद्धि से भी वह अधिक अनन्त गुण धारण करता जा रहा है । वत्स ! विचक्षण * पृष्ठ ३३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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