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________________ ४६२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा युक्तं चायुक्तवद्भाति, सारं चासारमुच्चकैः । प्रयुक्तं युक्तवद्भाति, विमर्शेन विना जने । इसका नाम ही विमर्श (तर्क पूर्ण विचार) है । विमर्श के बिना करणीय कार्य अकार्य लगता है, सार असार लगता है और अकरणीय कार्य करणीय लगता है। विमर्श जिस प्राणी के अनुकूल नहीं होता उसे हेय (त्याज्य) कार्य उपादेय लगता है और उपादेय कार्य हेय लगता है। यदि कोई अत्यन्त गहन कार्य हो जिसका पृथक्करण बुद्धि नहीं कर सकती हो तब विमर्श उस पर विवेचन कर सिद्धान्ततः निर्णय कर सकता है। क्योंकि, विमर्श पुरुष और स्त्री के मानसिक रहस्य को समझता है, देश-राज्य और राजाओं की व्यवस्था जानता है, त्रिभूवन के तत्त्व को जानता है, रत्नों की परीक्षा कर सकता है, लोकधर्म का रहस्य जानता है, देव-तत्त्व को जानता है, सभी शास्त्रों का रहस्य उसके लक्ष्य में रहता है तथा धर्म और अधर्म की व्यवस्था में क्या रहस्य है यह उसको ज्ञात है। इन सब विषयों में तत्त्व को जानने वाला विमर्श के अतिरिक्त संसार में अन्य कोई नहीं है। वत्स ! जिन प्राणियों का मार्गदर्शक महाप्राज्ञ विमर्श होता है वे प्राणी समस्त विषयों के आन्तरिक रहस्य को समझ कर सुखी होते हैं । तू भाग्यशाली है कि तुझे यह विमर्श सगे साले के रूप में प्राप्त हुआ है । भाग्यहीन प्राणियों को कभी चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति नहीं होती । रसना की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पता लगाने के लिये तुझे इसको ही भेजना चाहिये । सूर्य ही रात्रि के अन्धकार को समाप्त करने में समर्थ हो सकता है। [१-८] विचक्षण-जैसी पिताजी की प्राज्ञा । इतना कहकर यह जानने के लिये कि विमर्श यह कार्य करने को तैयार है या नहीं ? विचक्षण ने विमर्श के मुख की ओर देखा। विमर्श-मुझ पर अनुग्रह है । (प्रापको जो कहना हो कहिये, मैं करने के लिये तैयार हूँ।) विचक्षण-यदि ऐसी बात है तो पिताजी को प्राज्ञा का शीघ्र पालन करें अर्थात् रसना की मूलशुद्धि के विषय में शोध करें। विमर्श-बहुत अच्छा, मैं तैयार हु । एक बात पूछनी है कि पृथ्वी विशाल है, जिसमें अनेक देश और अनेक राज्य हैं, इसलिये सम्भव है मुझे इस शोध में अधिक समय लग जाय, अतः आप कोई समय निश्चित कीजिये कि अमुक समय में मुझे वापस पा जाना चाहिये। विचक्षण-भद्र ! तुम्हें एक वर्ष का समय दिया जाता है। विमर्श - बड़ी कृपा । ऐसा कहकर प्रणाम कर विमर्श चलने की तैयारी करने लगा। प्रकर्ष का सहयोग इसी वार्ता के बीच प्रकर्ष ने उठकर अपने दादा शुभोदय के चरण छए, अपनी दादो निजचारुता को प्रणाम किया और माता-पिता विचक्षण एवं बुद्धि को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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