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________________ प्रस्ताव ४ : रसना और लोलता सम्यक्तया ज्ञात कर लेने पर इसके अनुसरण का कार्य अधिक सरल और सुखकारी हो जायेगा । अर्थात् इसका पोषण कब और कितना करना चाहिये इसका निर्णय करने के लिये विशेष साधन प्राप्त हो जायेंगे । बुद्धिदेवी (पत्नी) ने कहा-आर्यपुत्र ! गुरुजन (बड़े लोग) जैसी आज्ञा दें उसी के अनुसार आपको करना चाहिये। “अलंघनीयवाक्या हि गुरवः सत्पुरुषाणां भवन्ति ।" सज्जन पुरुषों के लिये गुरुजनों के वाक्य अलंघनीय होते हैं अर्थात् सज्जन पुरुष उनकी आज्ञा का कभो उल्लंघन नहीं करते। प्रकर्ष (पुत्र) बोला-पिताजी ! मेरी माताजी बूद्धिदेवी ने उचित ही कहा है। विमर्श (साला) बोला-इस विषय में अयोग्य बात कहना आता हो किसको है ? अर्थात् अयोग्य बात कहने वाला यहाँ है ही कौन ? सम्यक प्रकार से परीक्षा पूर्वक किया हुआ कोई भी कार्य सर्वथा सुन्दर ही होता है। रसना को मूल-शुद्धि का निश्चय विचक्षण ने अपने मन में सोचा कि ये सब स्वजन जो परामर्श दे रहे हैं वह उचित ही है । यह सच ही है कि विद्वान् पुरुष को स्त्री के कूल, शील और प्राचार सम्बन्धी जानकारी किये बिना उसका संग्रहण और पोषण नहीं करना चाहिये । अर्थात् न तो अज्ञात स्त्री से परिचय ही बढ़ाना चाहिये और न उस पर विश्वास ही करना चाहिये । रसना की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तो मुझे कुछ लोलता से ज्ञात हुआ किन्तु इसके शोल और प्राचार के सम्बन्ध में तो ऐसा सुनने में आया है कि इसे अच्छा खाना-पीना बहुत पसन्द है और इसकी दासी लोलता ने भी ऐसा ही कहा है। अथवा नहीं! नहीं !! शीलवान और समझदार व्यक्ति सर्पगति के समान प्रति कुटिल चित्तवृत्ति वाली कुलवधु के वचनों पर भी विश्वास कैसे कर सकता है ? ऐसी स्थिति में एक दासी के वचन पर विश्वास करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। शील और प्राचार के विषय में तो लम्बे समय तक साथ रहने पर ही अच्छी तरह से पता लग सकता है, सामान्य सम्पर्क से नहीं । इस विषय में मैं अधिक विचार क्यों करूं? मेरे पिताजी आदि ने जैसा परामर्श दिया है उसी के अनुसार इस रसना की मूलशुद्धि के सम्बन्ध में खोज करू । इसकी मूलशुद्धि ज्ञात होने पर यथोचित मार्ग ग्रहरण करूंगा। उपरोक्त विचार करते हुए विचक्षण ने अपने पिताजी से कहा- जैसी आपकी आज्ञा । परन्तु, & रसना की उत्पत्ति का पता लगाने के लिये भेजने योग्य कौन है ? यह आपत्री ही निर्णय करावें। विमर्श की नियुक्ति शुभोदय- वत्स ! यह तेरा साला विमर्श महत्वपूर्ण कार्य करने का भार वहन करने में समर्थ है। * पृष्ठ ३३३ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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