SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा की पंक्ति (बादलों) के समान कभी रक्त (आसक्त) और कभी विरक्त होती है, पर्वत जैसे उन्नत स्थान से उत्पन्न नदी की भाँति निम्नगामिनी होती है, दर्पण के प्रतिबिम्ब के समान दुर्ग्राह्य होती है, अत्यधिक कुटिलता से पूर्ण सांपों को रखने के करंडिया के समान होती है, कालकूट विष से वद्धित वेलड़ी (लता) के समान मृत्यु प्रदान करने वाली होती है, नरकाग्नि के समान अतिभीषण संताप देने वाली होती है, मोक्ष-प्राप्ति के साधक सद्ध्यान की शत्रु होती है, चिन्तन-भाषण और कर्म से भिन्न पाचरण वाली होती है, मायाचारिणी होती है, पुरुष के निकट पतिव्रता साध्वी का दिखावा करने वाली होती है, इन्द्रजालिक विद्या के समान दृष्टि को पाच्छादित करने वाली होती है, अग्निपिण्ड के समान पुरुष के मनरूपी लाख को पिघलाने वाली होती है और स्वभाव से ही सर्व प्राणियों में परस्पर वैमनस्य करवाने वाली होती है। इसीलिये विज्ञपुरुषों ने नारी को संसार-चक्र को चलाने का कारणभूत कहा है। पुन: यह पुरुष के द्वारा आस्वादित और भूज्यमान दिव्य विवेकामृत भोजन का वमन करवाने वाली होती हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । पुनश्च, नारी में असत्यभाषण, साहसिकता, कपटवृत्ति, निर्लज्जता, अतिलोभिता, निर्दयता, अपवित्रता आदि दुगुण स्वाभाविक रूप से होते है । वत्स ! तुझे अधिक क्या कहूँ ? संक्षेप में, इस जगत् में जितने भी दोषपूज हैं वे सभी नारी रूपी भाण्डशाला (भण्डार) में अनादि काल से सुप्रतिष्ठित (स्थापित) हैं । अत: जिस प्राणी को अपने हित की कामना हो उसे स्वयं को स्त्री के विश्वास पर नहीं रहना चाहिये । वास्तविकता को समझाने के लिये इतने विस्तार से मैंने उपरोक्त वर्णन किया है । तुझे यह रसना स्त्री दासी लोलता के साथ प्राप्त हुई, वह मुझे तो ठीक नहीं लगती । तेरा इसके साथ परिचय (जान-पहचान) कैसे हुआ ? अभी तो यह भी ज्ञात नहीं है कि यह कहाँ से आई और कौन है ? अतः इसका संग्रह (स्वीकार), पालन-पोषण करने के पहले इसके मूल स्थान के बारे में अच्छी तरह से शोध (जाँच) करनी चाहिये । [३४-४८] कहा भी है अत्यन्तमप्रमत्तोऽपि, मूलशुद्ध रवेदकः । स्त्रीणामपितसद्भावः, प्रयाति निधनं नरः ।। [४६] अत्यन्त अप्रमत्त अर्थात् विवेकशील एवं प्रवीण होने पर भी यदि पुरुष स्त्री के मूल स्वभाव (उत्पत्ति स्थान) की जाँच नहीं करता, उसे भलीभाँति नहीं पहचानता और अपना हृदय समर्पित कर देता है तो वह अवश्य ही निधन (नाश) को प्राप्त होता है । [४६] निजचारुता माता ने कहा-वत्स विचक्षण ! तेरे पिता ने तुझे जो परामर्श दिया है वह पूर्णतया युक्तिसंगत है । रसना की उत्पत्ति के विषय में पहले जाँच करो । जाँच करने में हानि भी क्या है ? इसके कुल, शील और स्वरूप को * पृष्ठ ३३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy