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________________ ४५८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा इस प्रकार जड़ कुमार को रसना के लालन-पालन में सर्वदा उद्यत (प्रयत्नशील) देख कर लोग उसकी हँसी उड़ाने लगे कि यह जड़ कुमार तो सचमुच जड़ ही है अर्थात् बुद्धि शून्य है। यतो धर्मार्थमोक्षेभ्यो, विमुखः पशुसन्निभः । रसनालालनोद्य क्तो न चेतयति किञ्चन ।। [१२] रसना इन्द्रिय में आसक्त प्राणी उसके लालन-पालन में इतना पशुतुल्य हो जाता है कि वह धर्म, अर्थ और मोक्ष इन तीनों पुरुषार्थों का त्याग कर देता है और अन्य किसी भी विषय में कुछ भी नहीं सोचता, अत: वह सचमुच जड़ ही समझा जाता है। इस प्रकार लोग जड़ कुमार की अनेक प्रकार से हँसी उड़ाते और निन्दा करते, परन्तु वह तो किसी की भी चिन्ता किये बिना रसना में अधिकाधिक गृद्ध होता गया । पीछे मुड़कर उसने देखने का तनिक भी प्रयत्न नहीं किया। [१३] विचक्षण और रसना लोलता और जड़ कुमार के प्रश्नोत्तरों को विचक्षण ने सुना और मध्यस्थ भाव से अपने मन में विचार किया कि रसना मेरी स्त्री है इसमें तो कोई सन्देह नहीं है। क्योंकि यह मेरे वदनकोटर में प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है। परन्तु, इस दासी ने रसना का पालन-पोषण करने के बारे में जो कुछ कहा है, उसके विषय में तो पहले सम्यक् प्रकार से परीक्षण (जाँच-पड़ताल) किये बिना उसे स्वीकार करना उचित नहीं है। [१४-१६] कहा भी है यतः स्त्रीवचनादेव, यो मूढात्मा प्रवर्तते । कार्यतत्त्वमविज्ञाय, तेनानर्थो न दुर्लभः ।। [१७] जो मूर्ख प्राणी कार्य के तत्त्व को बिना समझे केवल स्त्री के वचन के आधार पर प्रवृत्ति करता है उसे अनर्थ की प्राप्ति हो यह असम्भव नहीं है। [१७] अतः लोलुपता जब कभी किसा खाने-पीने के पदार्थ की माँग करे तब उसे वह पदार्थ अनादरपूर्वक देना चाहिये और इसी प्रकार थोड़ा समय व्यतीत कर इस विषय में बराबर जाँच करनी चाहिये कि वास्तविक सार क्या है ? [१८] । विचक्षण ने अपने विचार के अनुसार निर्णय किया कि रागरहित होकर इस रसना को साधारण शुद्ध पाहार देकर इसका पालन-पोषण तो करना चाहिये, परन्तु लोलता (लोलुपता) का पूर्णतया निवारण करना चाहिये । अविश्वसनीय स्त्री पर विश्वास भी नहीं करना चाहिये, अतः लोक व्यवहार निभाने के लिये अनिन्द्य मार्ग से इस रसना का पोषण करना चाहिये । अर्थात् इसको अधिक महत्त्व कभी नहीं देना चाहिये । इस निर्णय के अनुसार विचक्षरण कुमार धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों को एक साथ निभाने लगा। इससे विद्वान् और समझदार लोग उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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