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________________ प्रस्ताव ४ : रसना और लोलता ४.७ इनका लालन-पालन एवं इसके साथ लीला की है । अतः अब भी आपको यहीं रह कर मेरी रसना स्वामिनी का लालन-पालन करना चाहिये। जड़-तू जैसा कहेगी वैसा ही करूगा । इस विषय में तेरा वचन सर्वथा प्रमाण है । अतः तेरी स्वामिनी को जो बात प्रियकारी हो वह मुझे बतला, जिससे कि मैं उसकी पूर्ति कर सकू। लोलता- आपकी बड़ी कृपा । इसमें अब मेरे कहने योग्य क्या शेष रहता है ? आप दोनों मेरी स्वामिनी का अच्छी प्रकार पालन-पोषण कर उसे प्रसन्न करें और निरन्तर अमृतमय सुख का अनुभव करें। इस प्रकार का निर्णय करने के बाद जड़ कुमार अपने वदनकोटर (मुख) में रहने वाली रसना देवी का मोह से प्रयत्न पूर्वक लालन-पालन करने लगा। उसे बार-बार दूध पाक, गन्ना, शक्कर, दही, घी, गुड आदि और उसके बने खाद्य पदार्थ, 'स्वादिष्ट मिठाइयाँ आदि खिलाने लगा और द्राक्षा आदि के सून्दर पेय पदार्थ पिलाने लगा। उसकी इच्छानुसार प्रतिदिन विचित्र प्रकार के मद्य, मांस, मधु आदि और विश्व में प्रसिद्ध रसों से भरपूर अन्य खाने-पीने के पदार्थ खिला-पिला कर उसे आनन्द देने लगा। * इस प्रकार जड़ द्वारा रसना का लालन करते हुए कभी कोई न्यूनता दृष्टिगोचर होती तो लोलता दासो उसे प्रेरित करती और कहती - 'मेरी स्वामिनी और अपकी प्यारी स्त्री प्रतिदिन आपको जैसा कहे उसी के अनुसार उसे मांस खिलावें, शराब पिलावें, मिठाइयाँ खिलावें, सुन्दर स्वादिष्ट सब्जियाँ फल प्रादि खिलावें; क्योंकि मेरी स्वामिनी को ऐसी वस्तुएं बहुत अच्छी लगती हैं। इस प्रकार लोलता जैसा कहती, उन सब को जड़ कुमार सर्वदा कार्यरूप में परिणित करने लगा। वह समझने लगा कि यह जब कभी किसी भी वस्तु की मांग करती है तो मुझ पर अनुग्रह करती है । [१-६] रसना देवी पर आसक्त होने से जड़ कुमार प्रतिदिन विविध क्लेशों में निमग्न होने पर भी मोह के कारण यही मानता था कि, अहा ! मैं कितना भाग्यशाली हूँ, पुण्यशाली हूँ, कृतकृत्य हूँ कि पुण्योदय से मुझे ऐसी शुभकारी पत्नी प्राप्त हुई है, जिससे मैं सुखरूपी समुद्र में डुबकी लगा रहा हूँ। अभी जैसा मैं सुखी हूँ वैसा तीन भुवन में भी अन्य कोई नहीं है; क्योंकि ऐसो सुन्दर स्त्री के बिना संसार में सुख हो ही कैसे सकता है ? [७-६ यतोऽलोकसुखास्वादपरिमोहितचेतनः । तदर्थं नास्ति तत्कर्म, यदर्थं नानुचेष्टते ।। [१०] झूठे सुख की प्राप्ति के लिये झठे सुख के स्वाद में लुब्ध हए और मोह में आसक्त चित्त वाले प्राणी के लिये ऐसा कोई भी कर्म नहीं होता जिसे वह नहीं करता हो । अर्थात् ऐसा प्राणी समस्त प्रकार के दुष्कर्म कर सकता है । * पृष्ठ ३३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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