SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा केले आदि के अनेक सुन्दर मण्डप बने हुए थे । केवड़े की मनमोहक सुगन्ध से प्रमुदित होकर भंवरों के झुण्ड उद्यान को गुजारित कर रहे थे । संक्षेप में, वनराजि के समस्त गुणों से यह उद्यान शोभायमान था और स्वर्ग के नन्दन वन के समान दृष्टिगोचर हो रहा था। [२१-२२] 28 । ऐसे मनोरम उद्यान में नरवाहन राजा (मेरे पिताजी) ने एक स्थान पर विश्राम किया। उसके पश्चात् उद्यान की सुन्दरता से उनका चित्त अत्यधिक प्रमुदित हुआ और वे अपने सामन्तों के साथ घूमते हए स्वकीय नील कमल जैसे सुन्दर और चपल नेत्रों से अपलक होकर उद्यान की शोभा देखने लगे। शोभा का निरीक्षण करते हुए राजा ने एक रक्त अशोक वृक्ष के नीचे साधुजनोचित स्थान पर विराजमान, श्रेष्ठ साधु समूह से परिवृत विचक्षण नामक आचार्य को धर्मोपदेश देते हुए देखा । उस समय वे आचार्य शोभन कान्ति से पूर्ण नक्षत्र एवं ग्रह-गणों से घिरे हुए , दिशाओं को प्रकाशित करते हुए साक्षात् चन्द्रमा के समान प्रकाशमान हो रहे थे। उनके सुन्दर शरीर के चारों और अशोक वृक्षों का समूह सुशोभित था । यथेष्ट फलदाता होने से वे प्राचार्यश्री साक्षात् जंगम कल्पवृक्ष जैसे लगते थे। वे कुलशैल पर्वत पर देवताओं के निवास स्थान जैसे शुद्ध स्वर्ण के वर्ण वाले दिखाई देते थे। वे चलते-फिरते सखदायक मेरु पर्वत के समान प्रतीत होते थे। कुवादी रूप मदोन्मत्त हाथियों के मद को नाश कर दें ऐसे दिखाई देते थे। श्रेष्ठ हाथियों के झुण्ड के समान वे सुसाधुओं के समूह से परिवृत्त थे । गन्धहस्ति के समान होते हुए भी वे निर्मद थे अर्थात् मान-रहित थे । जैसे किसी भाग्यशाली को भाग्योदय से रत्नपूरित निधान प्राप्त हो जाय वैसे ही निर्मल मानस वाले इन आचार्यदेव को देखकर राजा नरवाहन को अवर्णनीय आनन्द प्राप्त हुआ। [२३-३१] नरवाहन राजा की जिज्ञासा विचक्षण प्राचार्य को देखते ही राजा नरवाहन के मन में यह दृढ़ प्रतीति हुई कि जैसे ये नररत्न तपोधन महात्मा हैं वैसे त्रैलोक्य में भी नहीं हैं । देवताओं की कान्ति को भी पराजित करने वाली इन महात्मा की आकृति को देखने मात्र से ही द्रष्टा को विश्वास हो जाता है कि ये महात्मा समस्त गुणों से परिपूर्ण हैं । अहा ! इन महात्मा ने पूर्ण युवावस्था में ही कामदेव को खण्डित (पराजित) कर दिया है । इस तरुणावस्था में किस कारण से इन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ होगा ? पुनः राजा ने सोचा कि ऐसे महर्षि के चरण-कमलों में प्रणाम कर अपनी आत्मा को पवित्र करू और इनसे पूर्ण युवावस्था में भवनिर्वेद (वैराग्य) का कारण पूछ।' ऐसा चिन्तन कर राजा सूरिमहाराज के समीप गये और उनके पवित्र चरणों में मस्तक भूका कर वन्दना की। आचार्यश्री ने राजा को आर्शीवाद दिया तब वे प्रसन्न चित्त होकर उनके समक्ष शुद्ध जमीन पर बैठे । राजा का अनुसरण कर अन्य राजपुरुषों और नगरवासियों - * पृष्ठ ३२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy